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त्त विवाग जिप्र विवागाउं ॥ वेणि अन्न रुचं, चरम समयंमि खीयंति || अह सुइ सयल जग सिह, र मरु निरुवम सदाव सिद्धि सुहं ॥ अनियण महाबाई, तिरयणसारं अवंति ॥२॥ डर दिगम निजण परम, च रुइर बहु जंग दिठि वाया || सरित्र्यवा, बंधोदय संत कम्मा ||२|| जो जच परिपुन्नो, अहो अप्पा गमेण बंधोति ॥ तं खमिळण व हुसुया, पूरेऊणं परि कदंतु ॥ ३ ॥ गाहग्गं सयरीए, चंद महत्तर मयाणु | सारीए || टीगाइ नियमिणं, एगूणा होइ नई ॥४॥ ॥ इति श्री | सप्ततिकानामा षष्ठः कर्मग्रंथः समाप्तः ॥ ६ ॥
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अथ श्रीरत्नाकरसूरिकृतरत्नाकरपंचविं शिकाप्रारंभः ॥ उपजातिछंदः ॥ श्रेयः श्रि यां मंगल के लिसद्म, नरेंदेवेंऽनतांघ्रिपद्म सर्वज्ञ सर्वातिशयप्रधान, चिरं जय | ज्ञानकला निधान ॥ १ ॥ जगत्रयाधार कृपावतार, डवरसंसार विकारवैद्य ॥
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