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कर्म०
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नवसन्निसु, उहु अनवा सन्निमिचिसमा ॥ सासन्निन्न, कम्म मंगो प्रणाहारे ॥२४॥ तिसु सु सुक्काइ गुणा, चन सग तेरत्ति बंधसामित्तं | देविंदसूरि रइयं, नेयं कम्मचयं सोनं ॥२५॥ इति बंधस्वामित्वाख्यस्तृतीयः | कर्मग्रंथः समाप्तः ॥३॥ नमि जिणं जित्र्यमग्गण, गुणवाणुवढंग जोग लेसा ॥ बंध प्पबहू जावे, सं खिजाई किमवि वुद्धं ॥१॥ नमि जिणं वत्तवा, चउदस जिवाणएसु गुणठा ा ॥ जोगुवर्उगो लेसा, बंधोदन दीरणा सत्ता ॥२॥ ( पाठांतरं ) चउदस जिया सु, चउदसगुणठाणगाणिजो गाय ॥ नवजंगलेसबंधो, दन्दीरणसंत प ए॥ ॥ तद मूल चन्द मग्गण, गणेसु बासहि उत्तरेसु यवि ॥ जिय गुण जोगुवर्ज गा, लेस प्पबहुं च बहाणा ॥३॥ पाठांतरं ॥ चउदस मग्गठाणे, सुमूलपरसु बिस हि इयरेसु ॥ जियगुणजोगुवउंगा, लेसप्पबहुत्ताणा ॥ ३ ॥ चउदस गुणेसु
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ग्रंथ ४
॥ एए ॥
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