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व्रतग्रहणलक्षणो गुणः
श्रीधर्मरत्न प्रकरणम् ॥१३४॥
संकाइसल्लरहिओ, विज्जाइगुणो दयाइ संजुत्तो । सम्मइंसणधारी, एसा खलु होइ पढमा उ ॥२९॥ बीया मुणवयधारी, सामइयकडो उ तइयया होइ । होइ चउद्दसिअट्ठमीपुण्णिममाईसु दिवसेसु ॥३०॥ पोसह चउव्विहं पी, पडिपुण्णं जो उ सम्ममणुपाले । पंचमि पोसहकाले, पडिमं कुण एगराईयं ॥३१॥ असिणाणवियडभोई, पगासभोइ त्ति जं भणिय होइ । दिवसउ न रत्ति मुंजे, मउलिकडो कच्छ नवि बंधे ॥३२॥ दियबंभचारि राईपरिमाणकडो अपोसहीए उ । पोसहिए रत्तिं पि य, नियमेणं बंभचारी उ ॥३३॥ इय जाव पंच मासा, विहरइ इय पंचमा भवे पडिमा । छट्ठीइ बंभचारी, ता विहरइ जाव छम्मासा ॥३४॥ सत्तमि सत्त उ मासे, नवि आहारे सचित्तमाहारं । जंज हिडिल्लाणं, तं चोवरिमाण सव्वंपि ॥३५॥ आरंभसयंकरणं, अट्ठमिया अट्ठ मास वज्जेइ । नवमी नव मासे पुण, पेसारंभे विवज्जेइ ॥३६॥ दसमी पुण दस मासे, उद्दिढकयं पि भत्त नवि भुंजे । सो होई छुरमुंडो, सिहलिं वा धारइज्जा वि ॥३७॥ जं निहियमत्थजायं, पुच्छंत नियाण नवरि सो आह । जइ जाणइ तो साहइ, अह नवि तो बेइ नवि जाणे ॥३८॥ खुरमुंडो लोओ वा, रयहरणपडिग्गहं च गिण्हित्ता । समणभूओ विहरइ, नवरं सन्नायगाणुवरिं ॥३९॥ ममकारमवुच्छिन्ने, बच्चइ सन्नायपल्लि दटुं जे । तत्थवि साहु व्व जहा, गिण्हइ फासुं तु आहारं ॥४०॥ इय फासिय पडिमाओ, छट्टट्ठममाइदुक्करतवेहिं । संलिहियतणू कमसो, पडिवज्जइ अणसणं धीरो ॥४१॥ सो सुहभाववसुप्पन्नओहिणा मुणइ लवणजलहिम्मि । उत्तरवज्जदिसासुं, पणपणजोयणसयाई पुढो ॥४२॥
तत्र आ न्दश्रावक दृष्टान्त:
॥१३४॥
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