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लब्धलक्ष्य
श्रीधर्मरत्नप्रकरणम्
गुण:
२१
॥१०९॥
कयमयणदमो बहुसुद्धआगमो संगमु ति वरसूरी । दरीकयपावभरो, विहरंतो तत्थ संपत्तो ॥२॥ गुणवुड्विभावकलिओ, सक्किरियालंकिओ रुहरसहो । लक्खणगन्थु ब्व समत्थि तस्स एगो पवरसीसो ॥ ३ ॥ सो बालोवि अबालप्पइभागुणरयणरोहणसमाणो । आणिय चउत्थरसियं, कयावि इय कहइ गुरुपुरओ॥४॥ "अंबं तंबच्छीए, अपुफियं पुष्पदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नवबहूइ कुडएण मे दिन" ॥५॥ तो गुरुणा संलत्तो, वच्छ ! पलित्तो सि पदसि जं एवं । सो आह मह विहिज्जउ, आयारेणं पसाउ ति ॥६॥ तहविहिए गुरुणा तो, जणेण पालित्तओ त्ति सो वुत्तो । बहुसिद्धिजुओ वाई, ठविओ सूरी हिं निययपए ॥ ७ ॥ कइयावि वसहिबाहिं, वविखत्तो सो कहिंचि कज्जम्मि । जा चिट्टइ ता तहियं, संपत्ता वाइणो केवि ॥८॥ पुच्छति सूरिनिलयं, कहइ इमो वंकदीहरपहेण । कालविलंबकए लहु, वसहीइ सयं पुणो पत्तो ॥९॥ दाउ कवाडे कवडेण, सुवइ जा मुणिवरो तहिं ताव । पत्ता वाई पुच्छंति, कत्थ पालित्तओ सूरी ॥१०॥ अह पभणति विणेया, सुहंसुहेणं सुवंति किर गुरुणो । उवहासकए विहिओ, कुक्कुडसहो तओ तेहिं ॥११॥ गुरुणावि विरालीए, सद्दो विहिओ कहति तो एए। लीलाइ तए जिणिया, अम्हे सव्वेवि मुणिनाह ! ॥१२॥ दिज्जउ दसणमिहि, तो लहु उद्वेइ सो तयं लहय । दट्टुं तज्जिणणत्थं, पवाइणो इय पर्यपति ॥१३॥ पालित्तय ! कहसु फुडं, सयलं महिमंडलं भमंतेण । दिवो कहवि सुओ वा, चंदणरससीयलो अग्गी ॥१४॥ श्रीकालः मरिराजो नमिविनमिकुलोत्तंसरत्नायमानस्तच्छिष्यो वृद्धवादी द्विजकुलतिलकः सिद्धसेनो बभूव ।
तत्र नागार्जुन कथा। ॥१०९॥
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