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________________ रायपसेण इय सुत्तनो सार देव एनी पोतानी इच्छा होवा छतां उपरनां चार कारणोने लीधे अहीं आवी शकतो नथी. माटे, हे परसी ! 'शरीर साथै ज जीव अहीं बळी जाय छे, पथी मरेलो माणस फरी अहीं क्यांथी आवी शके ?" एवी तारी समज बराबर नथी. चारसे पांचसे योजन सुधी पहोची बळे छे. पण आ बात लक्ष्यमा राखवानी छे के उपर उपर जतां गन्ध मन्द थई जाय छे. मनुष्यलोकमा जे | दुर्गन्ध छे ते साधारण रीते चारसे योजन सुधी जाय छे पण मनुष्यलोकमा ज्यारे दुर्गन्ध खूब बधे छे त्यारे ते पांच योजन सुधी पण पहोंचे छे, माटे मूळकारे 'चारसो' अने 'पांचसो' एम बे संख्या बतावी छे." ("इह यद्यपि नवभ्यो योजनेभ्यः परतो गन्धपुद्गला न घ्राणेन्द्रिय|ग्रहणयोग्या भवन्ति, पुद्गलानां मन्दपरिणामभावात् घ्राणेन्द्रियस्य च तथाविधशक्त्यभावात् तथापि ते अत्युत्कटगन्धपरिणामा इति नवसु योजनेषु मध्ये अन्यान् पुद्गलान् उत्कटगन्धपरिणामेन परिणमयन्ति तेऽपि ऊर्ध्वं गच्छन्तः परतोऽन्यान् तेऽपि अन्यान् इति चत्वारि पञ्च वा योजनशतानि यावत् गन्धः केवलम् ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् मन्दपरिणामो वेदितव्यः । तत्र यदा मनुष्यलोके बहूनि गोमृतककलेवरादीनि तदा पञ्च योजनशतानि यावद् गन्धः शेषकालं चत्वारि तत उक्तम्- चत्वारि पञ्च इति पृ० १३४) आ समाधान तद्दन साधारण छे टीकाकार पोते ज कहे छे के उपर उपर गन्ध मन्द थतो जाय छे तो पछी चारसे के पांचसे योजन सुधीमां मन्दतम भयेली दुर्गन्ध, देवोने केम बाधा पहाचाडी शके ? आ तो एक संगति मात्र कहेवाय. आ बावतमां स्थानांगना टीकाकार अभयदेवसूरि वळी नवो प्रकाश पाडे छे. तेओ कहे छे के "मनुष्यक्षेत्र के गन्तुं स्वरूप छे एम आ उपरथी सूचित थाय छे. वस्तुतः तो देव वा बीजो कोई नव योजन करता वधारे दूरथी आवेलां पुद्गलोनो गन्ध जाणतो नथी- जाणी शकतो नथी अथवा शास्त्रमां इन्द्रियोना विषयनुं जे प्रमाण बतावेलुं छे ते सम्भव छे के औदारिक शरीर सम्बन्धी इन्द्रियोनी अपेक्षाए होय.” ( " इदं च मनुष्यक्षेत्रस्य अशुभस्वरूपत्वमेवोक्तम् । न च देवः अन्यो वा नवभ्यो योजनेभ्यः परतः आगतं गन्धं जानाति इति अथवा अत एव वचनाद् यद् इन्द्रियविषयप्रमाणमुक्तं तद् औदारिकशरीरेन्द्रियापेक्षयैव सम्भाव्यते " - पृ० २४४ स्थानांगटीका.) भरतादिक क्षेत्रमा या एकांत सुखमा काळ होय त्यारे तेनी दुर्गन्ध चारसो योजन जाय छे अने ज्यारे तेवो काळ न होय त्यारे १० १५ For Private & Personal Use Only Jain Educationema onal ॥ १२३॥ jainelibrary.org
SR No.600148
Book TitleRaipaseniya Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGurjar Granthratna Karyalay
Publication Year1938
Total Pages536
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_rajprashniya
File Size11 MB
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