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रायपसेणइयं सुतनो
सार
॥११४॥
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हे स्वामी ! ए केशी नामे कुमारभ्रमण पाश्र्वपित्य छे, जातिवंत छे, घार ज्ञानना धारक है, पमने आधोऽवधिज्ञान थपलं हे अने ओ अन्नजीवी छे. राजा बोल्योः
चित्त ! तुं शुं कहे छे ? शुं प पुरुषने आधोऽवधिज्ञान छे ? शुं प अन्नजीवी छे ?
सारथि बोल्योः
हा, स्वामी ! एम ज छे.
राजाः चित्त ! त्यारे शुं प पुरुष अभिगमनीय छे ? चित्तः हा, स्वामी ! प श्रमण अभिगमनीय छे.
राजाः त्यारे तो चित्त ! आपणे तेनी सामे जईए.
[१६४ ] आम वातचीत करी ए बन्ने जणा साथे, केशी कुमारनी सामे जईने तेमनी पासे बेठा.
राजः हे भ॑ते॒ ! शुं तमे आंघोऽवधिज्ञान धरावो छो ? शुं तमे अन्नजीवी छो ?
श्रमणे राजाने कः
हे पपसी ! गामे गाम फरता कोई अंकवाणिया शंखवाणिया के दंतवाणिया दाणमांथी छटकी जवा माटे कोईने खरो रस्तो पूछता
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१०२ केशी कुमारश्रमणनुं हृष्टपुष्ट अने कांतिबाळु मोटुं ताजुं शरीर जोईने राजाने मन आ प्रश्न उद्भवेलो छे. जेओ तपस्वी होय अ भिक्षामां आवेल अंतप्रांत अन्न खाता होय तेओनुं शरीर आयुं मोढुं ताजु अने कांतिवाळु होई शके खरुं ? ए जातनी राजाने मन शंका छे. टीकाकार पण आज खुलासो आपे छे. ( "एष किम् आहारयति ? x न खलु कदन्नभक्षणे एवंरूपायाः शरीरकान्तेः उपपत्तिः इत्यादि - पृ० १३० ).
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चित्ते करावेलो श्रम
नो परि चय
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