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________________ रायपसेणइय सुचनो सार ॥२७॥ शगत "धर्मचक्र आकाशगत छत्र आकाशगत श्वेत चामरो, पादपीठ सहित आकाशस्फटिकमय स्वच्छ-सिंहासन अने आगळ खेंचातो धर्मध्वज ए बधुं हतु तथा चौद हजार श्रमणो-साधुओ अने छत्रीश हजार श्रमणीओ साथे संपरिवरेला श्रमण भगवान महावीर फरता फरता त्यां आव्या हता. [१०] जे वखते श्रमण भगवान महावीर त्यां आव्या ते वखते आमलकप्पा नगरीमा ठेरठेर-तरमेटामा त्रिकमां चोकमां चाचरमां ३५ विवक्षित जर्थनी सिद्धि. ५१ समवायांगना मूळमां 'आकाशगत' अर्थनो सूचक 'आगासग' शब्द आपेलो छे. तेनो अर्थ करतां टीकाकार लखे छे के-'तथा 'आगासग'त्ति आकाशगतं व्योमवति आकाशकं वा प्रकाशकम् इत्यर्थःxxx एवम् आकाशगं छत्रं छत्रत्रयम् xxx आकाशके प्रकाशके श्वेतवरचामरे 'आगासफलिहमय'ति आकाशमिव यद् अत्यन्तम् अच्छम् स्फटिकम् तन्मयं सिंहासनम् ४ 'आगासगओ'त्ति आकाशगतोऽत्यर्थं तुङ्ग इत्यर्थः"-(पृ० ६१) टीकाकारना कहेवा प्रमाणे 'आगासग' शब्दना प्रण अर्थो थयाः एक तो व्योममा रहेतु-अद्वर रहेतुं, बीजो प्रकाशक-प्रकाश आपतुं-चमकतुं, अने श्रीजो घणु उंचु. ५२ भगवानना विहारनो आ बधो वर्णक विवरणकारनी भलामण प्रमाणे उववाइय सूत्रमाथी लीधेलो छे. उववाइय सूत्रना मूळमां "चउदसहि समणसाहस्सीहि छत्तीसाए अजिआसाहस्सीहिं" ए पाठ तो छे, परंतु टीकाकारे त्यां ए संबंधे कशी हकीकत लखी नथी ए जरूर विचारवा जेवू तो खरं ज. अने एम छे माटे उववाइय सूत्रना संपादके मूळना ए पाठने ( ) आवा निशाना मूकेलो छे अने ते उपर "ए वचन व्याख्यानुगामी नी" [औ० वृ० पृ० २१ सू० १० १० ११ तथा १४ ] एवं टिप्पण करेलुं छे. टीकाकार अने टिप्पणकारनुं वलण ए मूळ पाठ संबंधे संदेह उपजावे एवं जणाय छे अर्थात् भगवान विहार करता हशे त्यारे दरेक ठेकाणे तेमनी साथे चौद हजार साधुओ अने छत्रीश २५ हजार साध्वीओ हमेशां रहेतां ज हशे ए नको न कही शकाय पण ए वचन उपरथी तेमना श्रमणश्रमणीना परिवारनुं माप तो जाणी शकाय. Jain Education Intention! For Private Personel Use Only Iww.lnelibrary.org
SR No.600148
Book TitleRaipaseniya Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGurjar Granthratna Karyalay
Publication Year1938
Total Pages536
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_rajprashniya
File Size11 MB
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