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________________ -9501550-52-5 जोगिणिं पिव, दटुं राया सविम्हओ होउं । सिंहासणे निवेसइ पणयपरो लद्धआसीसो ॥ १२१ ॥ सिद्धिं मणिहाच्छियाणं सिद्धिं निवाणसंतियं कुणइ । जो जोगो सो तुम्हं वियरउ सिद्धिं महीनाह! ॥१२२॥ साहइ निवोऽवि जाया, अम्हे तुह दंसणेऽवि सकयत्था। तहविहु पुच्छामि तुमं किंपिहु दूरं न जोगाओ ॥१२३॥ सा भणइ नरिंद ! इहं! सका सकं समाणिउं सग्गा । नियसत्तीए सूरं गिलेमि राहुब चंदपि ॥ १२४ ॥ भुवणत्तयस्स मज्झे गुत्तं पयडंग च किंपि जो कजं । करइ य कारइ य नरो तं मह सबंपि पञ्चक्खं ॥ १२५ ॥ राया चिंतइ कजं मह सरिही जोइणीउ एयाओ। तं सह नेउं भवणे सकारइ असणवसणेहिं ॥ १२६ ॥ जाए जामिणिसमए संगीयं सुणिय तं|| भणइ राया । नियसत्तीइ ममाविहु पिक्खणयमिमं निदंसेसु ॥ १२७ ॥ साविहु रायं जंपइ एयंपिहु तुज्झ देव ! दंसेमि । परमक्खिजुयलयंमी बंधिस्सं पट्टए तिन्नि ॥ १२८ ॥ तह तुह देहं दिवं नियसत्तीए अ पढमओ काउं ।। पच्छा तत्थ नइस्सं अन्नह नहु लब्भइ पवेसो ॥ १२९ ॥ तन्वयणे पडिवन्ने रण्णा जाए पभायसमयंमि । मंडलमज्झे ठाविय दिवकरं सुच्चरइ मंतं ॥१३०॥ रयणीसमए पत्ते वारित्ता सवजणगमागमणे । पट्टयतियं निबंधइ अक्खीसुं सा नरिंदस्स ॥ १३१ ॥ पढमं तु चंदलेहाभवणे पच्छा नएइ सिटिगिहे । वारनिवासिणिभवणे तओ सुरंगाभवणदारे ॥ १३२ ॥ एगते ठावित्ता रणो छोडेइ अक्खिपट्टतिगं। सोऽविहु विम्हयभरिओ इओ तओ खिवइ नयणजुयं 8॥ १३३॥ भासुरमणिरुइतासियतिमिरभरं सहसकिरणविंद्व । मंडवमंडियमुत्तमजदरचंदोययसणाहं ॥ १३४ ॥४ -54-MORE Jain Education dinal For Privale & Personal Use Only anbrary og :
SR No.600143
Book TitleSamykatva Saptati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1916
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size10 MB
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