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सभ्य
॥ ८०॥
गुरुणो । ठावंति तवणतेए, अलत्तवडियं मुहे दाउं ॥ १४० ॥ तिवायवसंतत्ता दहिगयसत्ता समंतओ चलिउं।
स०टी० चडिया लत्तयवडियं, सुसीयलं जीवियवकए ॥ १४१ ॥ ते पासिऊण जीवे, धणपालो चिंतए नियमणंमि । अहह अहो जिणधम्मो, धम्मसु अवितहो एस ॥ १४२ ॥ जत्थेरिसया भावा, अरहंतेणं सयं समुल्लविया । ता एसच्चिय धम्मो, पमाणभूओ किमन्नेहिं ? ॥१४३॥ इय तस्स मणवणाओ, मिच्छत्तुम्मत्तकरिवरो नट्ठो। सम्मत्तहरी सहसा, तत्थ पविट्ठों अइगरिठ्ठो ॥१४४ ॥ धन्ना ते जियलोए, जे जिणधम्मंमि उज्जुया सययं । ते उण वयं अधन्ना, सुविणेवि न जेहि सो दिट्ठो ॥ १४५ ॥ इय चिंतिऊण नमिऊण, गुरुपए विन्नवेइ धणपालो । भयवं! कहसु रहस्सं, धम्मस्स तओ गुरू आह ॥ १४६ ॥ धम्मु सुचि सचराचरि जीवह दयसहिओ, सो गुरुवि घरघरिणिसुरयसंगमरहिओ । उज्झिय विसयकसाउ देउ जो मुक्कमलु, एहु लहुय रयणत्तउ चिंतियदिन्नफलु ॥ १४७॥ सविसेसं इय वयणामएण सित्तस्स तस्स चित्ताओ। मिच्छत्तविसो नट्ठो, जह न पविट्ठो पुणो तंमि ॥ १४८ ॥ देवगुरुधम्मतत्तं, तत्तो सो मुणिय चिंतइ हहाहं । हिंसादोसमलीमससत्थग्गहणे कहं नडिओ? ॥१४९ ॥ तत्तो गुरूण पासे, दंसणमूलाई वारस वयाई । परियणसहिओ गिण्हइ, धणपालो परमभावेणं ॥ १५० ॥ आजम्मर |जिणसासणदेवगुरू मुत्तु नेव वण्णेमि । परतित्थिआण देवे, अभिग्गहो तेणिमो गहिओ ॥ १५१ ॥ तत्तो ॥८ ॥ कम्मप्पयडिप्पमुहे सत्थे सुदुग्गमत्थेऽवि । लीलाइ मइबलेणं, संगहई सुगुरुवयणाओ ॥ १५२ ॥ रोमंचियगत्तो सो,
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