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________________ सूयगडाङ्ग सूत्रं दीपिकान्वितम् । ॥ ६ ॥ Jain Education In जैन साधु साध्वी संस्कृत भाषाके अधिकतर अभ्यासी देखे जाते हैं, पर संस्कृत से अति सरल जैनत्वकी मातृभाषा कही जानेवाली प्राकृत और अर्धमागधी के अभ्यासमें उदासीन देखे जाते हैं, अभ्यास प्रवृत्ति बढ़नी चाहिये । सरकार की ओरसे चलनेवाली युनिवर्सिटियोंमें संस्कृत - पालीके लिये जहां डिग्रियां दी जाती हैं, वहां प्राकृत मागधी की प्रवृत्ति नगण्य है। जिसके लिये विचारवान जैनसंघने प्रयत्नशील होना चाहिये, अस्तु । भाषाशास्त्रियोंकी खोजसे उनके अभिमत से पता चलता है कि श्वेताम्बर जैन आगमोंकी भाषा आज से २५०० वर्ष प्राचीन मानी जाती है। अर्धमागधी भाषा थोडा ध्यान देकर पढी जाय तो बडी सरल मालूम देती है । स्थानकवासी समाजकी ओरसे जैन आगमों पर अपने साम्प्रदायिक ढंगसे नई २ टीकाओंका निर्माण हो रहा है। यदि उसके निर्माता साम्प्रदायिक दुराग्रहसे रहित हों, तो अधिक वांच्छनीय होता । इस दीपिकावृत्तिके साथ जो सूयगडांग मूल छपा है उसमें मागधी प्रयोग सुरक्षित दीखते हैं, जो अभ्यासीके लिये ध्यान देनेकी वस्तु है । शीलांकसूरिकी वृत्ति विस्तृतरूपसे वस्तुस्वरूपकी चर्चा करती है, वहां यह दीपिका अति संक्षिप्त रूपसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन करती है । दोनों विस्तृत और संक्षिप्त टीकाओंको गुरुगमसे पढनेवाले ही जैन दर्शनकी सर्वोदय भावी सर्वतोमुखी स्याद्वाद शैलिका सही मूल्यांकन कर सकेंगे। इसके सम्पादन करनेवाले एवं प्रकाशन करनेवाले धन्यवादके पात्र है। इसके पठन-पाठनसे वस्तुस्वरूपकी हेय ज्ञेय उपादेय विशेषताको यथायोग्य ढंगसे आत्मपरिणत करे यही प्रार्थनीय । सबका कल्याण हो । उपाध्याय कवीन्द्रसागर For Private & Personal Use Only ॥ ६ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.600139
Book TitleSuyagadanga Sutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar Gani
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1959
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sutrakritang
File Size16 MB
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