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श्रीगुणचंद महावीरच ० ६ प्रस्तावः
॥ १९५ ॥
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गागि चिय लुणिउं अपारयंतो परंपि बहुलोगं । समुचियमुलपयाणेण सस्सलुणणे पट्टेइ ॥ २ ॥ तह मज्झवि चिरभवसंभवस्स कम्मस्स निज्जरणिमित्तं । जुज्जइ अणज्जजण संगएसु देसेसु विहरे ॥ ३ ॥ जं तत्थ अणज्जजणो निक्कारणकोवसंगओ धणियं । उवसग्गणेण काही साहेजं कम्मनिजरणे ॥ ४ ॥ इय चिंतिऊण नाही लाढाविसए मिलेच्छजणकिन्ने । गोसालेण समेओ अह निजाओ विजियमोहो ॥ ५ ॥ अह तत्थ गयं नाहं हेरियबुद्धीऍ केइ पात्रिहा । निहुरमुट्ठिपहारेहिं विद्दति निरणुकंपा ॥ ६ ॥ अन्ने असम्भवयणेहिं तज्जणं हीलणं च कुवंति । अइचंडतुंडसाणेहि पेसणेणं वर्हति परे ॥ ७ ॥ वंतरसुरसुरखइजक्खरक्खसपमुहंमि देवसंघाए । बहुमाणपरेऽवि जिणो एगागी सहइ उवसग्गे ॥ ८ ॥ मारिओ सोत्ति मज्झ हिययंमि निहियपडिवंधो । पट्टि ठिउ गोसालोऽवि सामिणो दुक्खमणुहवइ ॥ ९ ॥ अह तत्थ भूरितरकम्मनिज्जरं पाविऊण जिणनाहो । आरियखेत्ताभिमुहं आगच्छ पुन्नवंछोव ॥ १० ॥ आरियखेत्ताभिमुमि तस्स भयवओ पुन्नकलसाभिहाणगामसन्निहिंमि वट्टमाणस्स दोन्नि चोरा लाढाविसयमुसणट्ठा नीहरंता अवसउणोत्तिकाऊण जमजीहासन्निहं खग्गं उग्गिरिऊण धाविया संमुहं, एत्थंतरे पुरंदरो कहिं जिणो वसइति जाणणटुं जाव ओहिं पउंजेइ ताव पेच्छइ थेवेणासंपत्ते आयड्डियकरवाले चोरे वहनिमित्तं जिणस्स उवट्ठिए, अह जायतिचकोवावेगेण तेण तहट्ठिएणेव समुत्तुंग गिरिसिहरदलणदुल्ललिएण निहया कुलिसेणं,
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चौराके गोशालः
कालमेघ
मीलनं अअनार्येषु
विहारः.
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