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प्रशमरतिः हारि. वृत्तिः
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• विवरणकार श्रीहरिभद्रसूरिनो समय विक्रमनी १२मी सदीनो उत्तरार्द्ध सुनिश्चित छे. कारण के, खूद टीकाकारे प्रशस्तिमां “वि० सं० १९८५मां अणहिलपुर पाटणनी अंदर महाराजा जयसिंहदेवना राजकालमां आ टीका रची छे;” एवं स्पष्ठ उल्लेख्युं छे ( प्रशस्तिश्लोक ४) आ टीका सिवाय प्रस्तुत वृत्तिकारना समये एक बृहद्वृत्ति हती एटलं चोकस मालूम पडे छे. ए बृहद्वृत्तिने अनुसरीने ज आ वृत्ति रचायानुं प्रशस्तिमां स्पष्ट उल्लेखेलुं छे ( प्रशस्तिश्लोक ३ ). ए बृहद्वृत्ति अद्यापि उपलब्ध थई शकी नथी.
काका १४४४ बौद्ध साधुओने समळीरूपे आकर्षणार अने तेना प्रायश्चित्त - निमित्त (?) १४४४ प्रन्थोना प्रणेता; दरेक प्रन्थांते 'विरह' शब्द योजनारा 'याकिनीमहत्तरासूनु'ना उपनामथी प्रसिद्ध 'श्रीमद्धारिभद्रसूरि' नहि, पण बृहद्भच्छीय 'श्रीमान् देवसूरि' ना सन्तानीय श्रीहरिभद्रसूरीन्द्र छे ( प्रशस्तिश्लोक १ ).
प्रन्थसंशोधनकार्य माटे आगमाद्धोरक आगमव्याख्याप्रज्ञ साक्षरशिरोमणि आचार्यवर श्रीमद् आनन्दसागरजी सूरिश्वर के जेमनी कृपाछाया नीचे ८८ अंको प्रसिद्ध करवा शक्तिमान थया छीए तेमना – हुं तथा श्रीमान् ट्रस्टीवर्यो अहर्निश ऋणी छीए..
शेठ दे० ला ० जैन पुस्तकोद्धार फंडना उद्भवनो सामान्य इतिहास अत्रे आपवो योग्य लेखूं छु:
जेमनी स्मृतिने अर्थे आ फंड स्थापवामां आव्युं छे ते शेठ देवचंद लालभाई जह्वेरीए पोताना मृत्युपत्रमां रू० १००००० (एक लाख )नी रकम आ प्रमाणे शुभ कार्योमां खर्चवा माटे पोताना ट्रस्टीयोने फरमाव्यं हतुं.
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किञ्चिद्वक्तव्य.
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