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नवपद-चिंतयंतस्स ॥ ३२॥ सव्वोऽवि जणो पावइ सुक्खं दुक्खं च एत्थ जम्मंमि । पुवकयकम्मपरिणइवसेण निक्कारणं - मिथ्यात्वा वृत्ति-मू.व.
तिचारेशिंव. यशो.नि उणं ॥ ३३ ॥ ता अस्थि मएऽवि कयं पुब्धि कम्मं विसिट्ठसुहहेऊ । रज्जंतेउररट्ठाइएहि वड्डामि जेणाहं ॥३४॥
लोयपसिद्धो य इमो ववहारो जं विढप्पइ किलेऽज । तं भुज्जइ अण्णदिणे एवं जम्मंतरेऽवि फुडं ॥ ३५ ॥ तहाअइवडिओवि रासी निच्चुवभोगेण अणुवचीयंतो । खिज्जइ जणस्स अइरा एवं पुण्णेऽवि णायव्वं ॥ ३६॥ ता जाव न गलइ मई, चलइ न दिट्ठी सुई न पम्हुसइ। सामंतमंतिमाईजणोऽवि आणं न लंघेइ ॥ ३७॥ पुवकयसुकयसेसाणुभावओ ताव तस्स बुड्किए। मज्झवि जुत्तं काउं परलोयहियं किमवि कजं ॥ ३८ ॥तं च इम-आपुच्छिऊण लोयं । रज्जे संठाविऊण सिवभई । विहरामि दिसापुंछियतावसदिक्खं गहेऊणं ॥ ३९ ॥ एत्थंतरंमि पढियं बंदिणा कालनिवेयणत्थं-उदयायलमारोहइ सूरो तह देव ! विविहकज्जेसु । किं किं सिद्धं किं व न सिद्धमिति जोयणत्थंव ॥ ४० ॥ आयण्णिऊण एयं, सयणीयाओ समुट्ठिऊण तओ । कयसयलगोसकिच्चो अत्थाणभुवं समणुपत्तो ॥४१॥ तत्थ य आहूय असेसमिलियसामंतमंतिमाईणं । भणइ नियाभिप्पायं पायं सीहासणनिविट्ठो ॥ ४२ ॥ बहुमान्नओ य तेहिं तयभिप्पाओ तओ पुणो आह । जइ एवं ता सिग्धं दिज्जउ रज्जं कुमारस्स ॥ ४३ ॥ एत्यंतरंमि पत्तो
॥३६॥
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