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________________ श्रीपञ्चव. २ प्रतिदि नक्रिया ॥ २५६ ॥ Jain Education real संघrst froहायमणं तु जत्तिअं होइ । दवगहणं एवइअं इमेण विहिणा उ गच्छति ॥ ३९७ ॥ अजुअलिया अतुरंता विगहारहिआ वयंति पढमं तु । निसिहत्तु डगलगहणं आवडणं वच्चमासज्ज ॥ ३९८ ॥ (विआरिति दारं गयं ) ॥ ८ ॥ अणावायमसंलोए, परस्सऽणुवधाइए । समे अज्झसिरे आदि, अचिरकालकयम्मि अ ॥ ३९९ ॥ विच्छिणे दूरमोगाढे, णासण्णे बिलवज्जिए । तसपाणबीअरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ ४००॥ दो दारगाहाओ । एक्कंदुतिचउपंचच्छक्क सत्तहनवगदसएहिं । संजोगा कायद्या भंगसहस्सं चउधीसं ॥ ४०१ ॥ दुगसंजोगे चउरो तिट्ट सेसेसु दुगुणदुगुणा उ । भंगाणं परिसंखा दसहिं सहस्सं चउवीसं ॥ ४०२ ॥ अहवा उभयमुहं रासिदुगं हिडिल्लाणंतरेण भय पढमं । लडऽहरासिविद्दत्तं तस्सुवरिगुणं तु संजोगा ॥ ४०३ ॥ दस पणयाल विसुत्तर सयं च दो सघ दसुत्तरं दो अ। बावण्ण दो दसुत्तर विसुत्तरं पंचचन्ता य ॥ ४०४॥ दस एगो अ कमेणं भंगा एगाइचारणाए उ । सुद्धेण समं मिलिआ भंग सहस्सं चउद्दीसं ॥ ४०५ ॥ अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए ॥ ४०६ ॥ तत्थावायं दुविहं सपक्खपरपक्खओ अ नायवं । दुविहं होइ सपक्खे संजय तह संजईणं च ॥ ४०७ ॥ संविग्गम संविग्गा संविग्ग मणुण्णएअरा चेव । असंविग्गावि य दुह तप्पक्खिअ एअरा चैव ॥ ४०८ ॥ दारं ॥ परपक्वेऽवि अ दुविहं माणुसतेरिच्छियं च नायवं । एक्किकंपिअ तिविहं इत्थी पुरिसं नपुंसं च ॥ ४०९ ॥ For Private & Personal Use Only पात्रधोवनं विचारः ॥ २५६ ॥ ainelibrary.org
SR No.600102
Book TitlePanchvastuka Granth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages630
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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