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श्रीपञ्चव. २ प्रतिदि नक्रिया
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परिणाम विसुद्धीए विणा उ गहिएऽवि निजरा थोवा । तम्हा विहिभतीए छंदिज तहा वि(चि) अत्तिला ॥३४७॥ आहरणं सिट्टिदुगं जिद्द्विारणगदाणदाणेसु । विहिभत्तिभावऽभावा मोक्खंगं तत्थ विहिभत्ती ॥ ३४८॥ सालिवासठाणं समरे जिण पडिम सिट्ठिपासणया । अहभत्ति पारणदिणे मणोरहो अन्नहिं पविसे ॥ ३४९ ॥ जा तत्थ दाण धारा लोए कयपुन्नउत्ति अ पसंसा ।
केवलिआगम पुच्छण को पुण्णो ? जिण्णसिट्ठित्ति ॥ ३५० ॥ युगलं ॥ इअरे उ निअट्ठाणे गंतूणं धम्ममंगलाईअं । कति ताव सुत्तं जा अन्ने संणिअर्हति ॥ ३५९ ॥ धम्मं कण्ण कुजं संजमगाहं च निअमओ सधे । एद्दहमित्तं वऽण्णं सिद्धं जं जंमि तित्थस्मि ॥ ३५२ ॥ दिति तओ अणुसट्ठि संविग्गा अप्पणा उ जीवस्स । रागद्दोसाभावं सम्मावार्य तु मन्नंता ॥ ३५३ ॥ बायली से सण संकडंमि गहणंमि जीव ! न हु छलिओ । इहि जह न छलिज्जसि भुंजतो रागदो से हिं ॥ ३५४ ॥ रागोसविरहिआ वणलेवाइउवमाइ भुंजंति । कड्डित्तु नमोकारं विहीऍ गुरुणा अणुन्नाया ॥ ३५५ ॥ fears पिताईपसमणट्टया भुंजे । बुद्धिबलबद्धट्ठा दुक्खं खु विगिंचिउं निद्धं ॥ ३६६ ॥ अह होज निद्धमहुराई अप्पपरिकम्मसपरिकम्मेहिं । भोत्तूण निद्धमहुरे फुसिअ करे मुंचऽहाकडए ॥ ३५७॥ कुक्कुडिअंडगमित्तं अहवा खुड्डागलंबणा सिस्स ।
तुले (मितं ) गेण्हइ अविगिअवयणो उ रायणिओ ।। ३५८ ।।
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भोजनद्वारं
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