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वृत्तिः
पाक्षिकसताहे साहू भणन्ति पन्नरसह दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं इत्यादि । एवं जहन्नेणं तिनि
वा पंच वा, चाउम्मासिए संवच्छरिए य सत्त, उक्कोसेणं तिसुवि ठाणेसु सबे खामिजन्ति, एयं संबुद्धाखामणं रायणियस्स ॥२॥
भणियं, इत्थ कणिटेण जेठो खामेयत्वोत्ति वुत्तं भवइ । तओ कयकिइकम्मा उद्धडिया पत्तेयखामणं करेन्ति तत्थ य इमो विही-गुरू अन्नो वा जो गच्छमज्झे जेहो पढममुठेऊण उद्धडिओ चेव कणिडं भणइ अमुगनामधेया अन्भिन्तरपरिकयं खामेमो पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं इत्यादि, इमोवि भूमिनिहियजाणुसिरो कयञ्जली भणइ भगवं अहमधि खामेमि तुम्भे पन्नरसण्हमित्यादि । सीसो पुच्छइ किं गुरू उद्वित्ता खामेइ ? उच्यते, सबजइजाणावणत्थं 'जहा एस महप्पा मोत्तमहंकारंजहा दबओ अनहिओखामेइ एवं भावओवि समुडिओ खामेइत्ति' किं च जे गुरूसमीवाओ जच्चाइएहिं उत्तमतरा मा ते चिन्तिजा एस नीयतरो अम्हे उत्तमत्ति काउं पणयसिरो खामेइत्ति, एवं सेसावि अहारायणियाए खामेन्ति, जाव दुचरिमो चरिमन्ति । ताहे सबे कयकिइकम्मा भणन्ति देवसियं आलोएउं पडिक्कन्ता पक्खियं पडिक्कमामो? गुरू भणइ सम्म पडिक्कमह इति पाक्षिकचूर्ण्यभिप्रायः। आवश्यकाभिप्रायस्तु 'गुरू उठेऊण जहारायणियाए उद्धडिओ चेव खामेइ चउरो वा तो न खामिति अत्र गाथा "वंदित्ता तिण्णि जणे तत्तो जहजिट्ठमित्थ खामिति । जइ पणगाई होंति दो तिअ चउरो व खामिति ॥ १ ॥" तहा चाउम्मासिए जइ सत्तपभिअओ तो पंच खाति, अह छ पंच वा तउ तिण्णि चेव खामिति । संवच्छरिए पुणता जइ नवपभिअओ तो सत्त खामेति अह सत्तट्ठ वा तो पंच खामिति अत्रापिगाथा "चाउम्मासे पंच उ संवच्छरिए उ सत्त खामिति । जइदुण्णि उव्वहंते अण्णह तिअ पंच जह संखं ॥१॥" उक्कोसेणं तिसुवि ठाणेसु सव्वे खामिजंति । एवं इति प्रत्यन्तरेऽधिकमत्र ।
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