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सावगस्स सुद्दगस्स अक्खाणयं
सिरिसंति- * इय पयट्टइ समरभरपसरि, गुरुघायसयजजरिय जे सुवेयभड पडिय महियलि, उप्पाडइ जक्ख सवितेवेविनिययम्मि करयलि। नाहचरिए सद्दउ ओसहिरसबलिण जक्खविहियसन्नेज्झ, तह पगुणइ जह ते पुण वि करहिं निरारिउ जुज्झु ॥१०१॥७१२५॥
एवं पेक्खिवि इयर नरनाह, गुरुकोवभरपजलिय सुद्दयस्स घायणहं धावहिं ते पेक्खिवि जक्खवह तह करेइ जह तं न पावहिं। के वि हु पाडइ धरणियलि, के विणिच्चल थंभेइ किवि उम्मत्तय निरु करइ, किवि णिद्दइ सोवेइ ॥१०२॥७१२६॥
ते वि पेखिवि तासु माहप्पु, अइविम्हयरसभरिय झत्ति चित्ति चिंतहिं वियारिउ, "किं को वि एहु तियसवरु जेण अम्हि थभिय निरारिउ ।
पणमेप्पिणु ता एहु पर करहुं निरतरु सेव, जेण जियंता मुयइ पुणु अन्नहं का वि न टेव" ॥१०३॥७१२७॥ एवं चिंतवि करहिं जोहारु, ते सव्वि खेयरपवर, तं निएवि तो जक्खु मेल्लइ, उवविसहिं ते धरणियलि सुद्दयस्स अग्गइ वरिल्लइ। तं जाणेविणु सद्दयह दो वि नियत्तहिं मित्त, अग्गइ आविवि उवविसवि पुच्छहिं 'का एह वत्त ?' ॥१०४॥७१२८॥
तो सुलोयण जक्खु जंपेइ, 'भो बंधु ! निसुणह कहउं, एइ वइरिवहणत्थु पत्ता सुद्दय सामिहि, किंतु परघायकरणि हुय ते असत्ता एउ मुणवि उवसंतमइ पणमहिं सुद्दयपाय । आणाकारय भिन्चवर संपइ सामिहि जाय' ॥१०५॥७१२९॥
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१. °बलेण पा० विना ।। २. "यलि किवि पा० विना ।। ३. करहं जे० ।। ४. तर का० ।। ५. एव बइ० पा० ।। ६. एव पा० ।।