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________________ सिरिसंतिनाहचरिए रण्णो सूरपालस्स पुव्वभववुत्तंतं तओ 'पजंतकालो' त्ति इइ जाणिउं, करहिं संलेहणं सब्बु सम्माणिउं । अंतकालम्मि काऊण तो अणसणं, जे सया होइ कम्माण निन्नासणं ॥१५॥७०१२॥ झाययंताण परमेटुिमंतं बरं, इंदियाणं च काऊण तह संवरं । छड्डिऊणं इमं झत्ति तणुपंजरं, लिति ईसाणकप्पम्मि पयमामरं ॥१६॥७०१३॥ तत्थ भोत्तूण भोगे सुरिंदस्समे, देवलोगम्मि मण-नयणकयविन्भमे । वीरदेवो चइत्ताण पढमारओ, सूरपालो तुम जाउ गुणसारओ ॥१७॥७०१४॥ सा वि वरसाविया सुव्वया तच्चुया, जायए सा हु सीलमइ सयरस्सुया । ता जयं दिन्नु तुम्हेहिं मुणिदाणयं, तस्स फलु एउ संजाउ अपमाणयं" ॥१८॥७०१५॥ एव जाणित्तु भो ! देह सुणिरंतरं, पत्ति दाणं चइत्ताण तह अंतरं । जेण लद्भण मणुयत्ति रिद्धीभरं, जाह मोक्खं सयासोक्खसंपयकरं ॥१९॥७०१६॥ पडहिं धरणीयले एवमायण्णिउं, दो वि मुच्छाए नियदेहमवगन्निउं । तो सरित्ताण जाइं नियं पुब्बयं, वंदिऊणं गुरुं तं सयासुब्वयं ॥२०॥७०१७॥ ८३७ १. तुडभेहिं का० ॥
SR No.600084
Book TitleSiri Santinaha Chariyam
Original Sutra AuthorDevchandasuri
AuthorDharmadhurandharsuri
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year1996
Total Pages1016
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size17 MB
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