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सिरिसंतिनारि
एवं चिंतंतो सो पइदियहं सूरपालनरनाहो । जावऽच्छइ कइ वि दिणे ता जं जायं तयं सुह ॥७९॥६९३०॥ जम्मिय वरिसे एसो विणिग्गओ तस्स बीयवरिसम्मि । मेहेहिं नहाओ जलं न बिंदुमेत्तं पि पम्मुक्कं ॥ ८० ॥ ६९३१॥ जायं च रउरवं तो दुब्भिक्खं भूरिलोयखयजणगं । अप्पिड्रिढयमणुयाणं विसेसओ दुक्खसंजणयं ॥ ८१ ॥ ६९३२ ॥ किंचजत्थ मेहेहिं नो मुच्चए पाणियं, जत्थ भुक्खाए नरउयरु अइसाणियं ।
जत्थ धरवी बहुमयगपरिसंगयं, जत्थ न करेइ लोओ गयं आगयं ॥ ८२ ॥ ६९३३ ॥ जत्थ नियपुत्तु माया वि परिछहुए, अहव बाबाइउं घत्तए खड्डए ।
जत्थ बीहंति नर मग्गि बच्चंतया, पोरुसाएहिं निचं पि खितया ॥ ८३ ॥ ६९३४ ॥
जत्थ भिक्खा विसमणाण झंपिज्जए, रंकनिवहेहिं गिण्हेवि परिखज्जए ।
जत्थ भज्जा वि कंतेण परिमुच्चए, तस्स कालस्स अम्हेहिं किं बुच्चए ? ||८४||६९३५॥
इय तहिं दुक्कालई, भुक्खवमालई, सो महिवालु समाणुसउ ।
निग्गच्छिय नयरह, बहुगुणपयरह, जाइ विहियचिंताणुसउ ॥ ८५॥६९३६॥
एवं च वच्चमाणो, बहुविहकम्माई करेमाणो, महाकट्टेण भोयणस्स मिलमाणो, अणेगलोगेहिं दीसमाणो, पायं परिच्चत्तहिययाभिमाणो, गाम-नगराई लंघमाणो, अणाहसालासु वसमाणो, महादुक्खेण कुटुंबपरिसारवेमाणो,
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रण्णो
सूरपालस्स अक्खाणयं
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