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सिरिसंतिनाहचरिए
अभय विरओ पाएणं इयरहा उ भावे । “धिद्धी एसो मोहो, मोहिज्जइ जेण विउसो वि ॥ ५२॥५७४१ ॥ चम्म-ऽट्ठि-ण्हारुबद्धं नारीण कलेवरं असुइपुण्णं । धिंद्धी जीवसहावो, जं रज्जइ तत्थ मोहंधो ॥ ५३ ॥ ५७४२ ॥ थीलोयणाई जाई इंदीवरदलसमाई कप्पेइ । मोहंधो एस जिओ, मंसस्स उ गोलया ते उ || ५४ || ५७४३ ॥ मन्निजइ जो अहरो सव्वाऽमयरससमूहणिम्मविओ । दीहागारेण प्रियं, मुणह तयं चम्मखंडं ति ॥ ५५ ॥ ५७४४ ॥ जे कुंदकलियवरपंतिसच्छहा मन्निया इमे दसणा । ते हडुखंडमालं, पच्चक्खं मुणसु रे जीव ॥ ५६ ॥ ५७४५॥ जंपि मुहं अइरम्मं विसट्ट कंदोट्टसच्छहं कलियं । तं पि गलंतयलाला करालियं किं न भावेह ? ॥ ५७ ॥ ५७४६ ॥ णिम्मलकंचणकलस व भाविया जे पओहरा रुइरा । अविवेइणा जणेणं, ते भावसु मंसगुरुपिंडा ॥ ५८ ॥ ५७४७ ।। जं उयरं अइरुइरं विभावियं मोहमोहियमणेहिं । तं असुइनिवहसंपूरियं व, किर कोटुयं मुणह || ५९ ॥ ५७४८ ॥ जाविकडी सुविसाला, मोहिज्जइ जीए एस किर जीवो। सा हहु चम्म- मंसेहिं णिम्मिया, किं न चिंतेहि ? ॥ ६० ॥५७४९ ॥ पिवरंग णीसेसविसयरससुहसमूहयं मुणियं । तं बीभच्छं असुईपवाहनिज्झरणमिइ मुणसु ॥ ६१ ॥ ५७५० ।। जाओ वि य जंघाओ, कयलीथंभोवमाओ कलियाओ । चिंतितीओ विवेइणा उ, ताओ वि असुहाओ ॥ ६२ ॥ ५७५१ || जे कण कुम्मसरिसा पाया वरकामिणीण परिकलिया । ते अट्ठिपंजरमया जीव ! तुमं धरसु चित्तम्मि” ॥ ६३ ॥ ५७५२ ॥
१. धीधी जे० का० ॥। २. भावेहि का० ॥
सच्चस्स अक्खाणयं
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