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सिरिसंतिनारि
रणा विहु संलत्तो 'किं तुह भो ! विप्पयारणाठाणं । अम्हे जेणं एवं पञ्चक्खं विप्पयारेसि ? ' ॥ ५११॥४४०२ ॥
इमो विहु 'सामिय! कइया हं अलियभासिरो दिट्ठो ? ' । भणइ निवो 'तुज्झ गिहे सामग्गी अत्थि नो कावि ' ॥५१२ ॥ ४४०३ ॥ जंप य वच्छराओ 'अस्थि न अस्थि त्ति होउ पञ्च्चक्खं । साराहिजइ किं पुण निउत्तगा बीए पहु ! इण्हि ? ' ॥ ५१३ ॥४४०४ ॥ तो हिययम्मि सकोवो उटुइ राया समग्गपरिवारो । जा वच्चइ गिहदारे ता पेच्छइ मंडवं तुंगं ॥ ५१४ ॥ ४४०५ ॥ केरिसयं ? - गयणग्गलग्गधयवडमालाहिं निरंतरं विरायंतं । पुरओ विरइयकंचणखं भुग्गयतोरणविचित्तं ॥५१५॥४४०६॥ तं दणं राया पडिहारं भणइ 'किं तए पाव ! । एसो अइउत्तुंगो निरिक्खिओ मंडवो नेय ? ' ॥ ५१६॥४४०७ ॥ सो भणेइ 'देव ! एत्थं न मंडवो आसि निच्छओ एस'। राया वि भणइ 'एसो निप्फज्जइ मासअग्गेहिं ॥ ५१७ ॥ ४४०८ ॥ एवं उत्तर-पंचुत्तरेहिं जंपतओ खणद्वेण । पत्तो मंडवदारे विम्हइओ विसइ जोयंतो ॥५१८॥ ४४०९ || अवि यनियइ वरखंभपंतीउ सोवण्णिया, जासु दीसंति मणि- रयण पणवणिया ।
जत्थ उल्लोउ देवंगदूसाउलो, भमइ जहिं परियणो सव्वया आउलो ॥ ५१९॥४४१०॥ जत्थ दीसंति बहुहार ओलंबिया रयणकिरणेहिं मज्झम्मि आयंबिया ।
जत्थ थंभेसु चमरावली डाविया, जत्थ बहुकुसुमभरभत्तिसंपाविया ॥ ५२०॥४४११॥
१. यारणाए पा० ।। २ अत्थी नत्थि पा० । ३. नियत्तगा जे० ।। ४. मास अग्गेहे त्रुo ||
सूरस्स रायस्स कहाणय
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