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सिरिसंतिनाहचरिए
चूरियसेज पेक्खिवि हसंत, जंपेइ एउ तालाउ देंत, 'मई हणिउ भायधायगु निरुत्तु,' तं निसुणवि वेई राउ पत्तु, केसेस हेविणु भणइ 'रंडि ! कह तई मारिज्जउं हउं अयंडि ?, ' सा जंपइ भयकंपंत 'देव !, सरणाइय मई रक्खेहि एव, ' तं मेल्लिव उघाडेइ बारु, णिग्गच्छवि ढक्कइ अइसुतारु, नियघरि पइसेविणु, जणु मेलेविणु, भणइ 'लेहु जं जस्स गउ', चोरगे भंजेविणु, वत्त कहेविणु, लोयहं अप्पर तं जिसउ ॥१९॥२६३२ ॥ किंतु नारि जा नीय सगेहिहिं, नियभत्तार न पेच्छहिं नेहिहिं, सिसि वच्च भूमीहरि, रइ न वि बंधहिं कहवि हु नियघरि, तो लोएं राहतं अक्ख, तेण वि विजह वयणु निरिक्खिर, वे कहउ 'देव ! ता निच्छई, जोगचुण्णि भावीय सइच्छई,
तापडिजोग्गु देमि हउं सामिय!, 'जेण निरुत्तु होंति साहाविय, ' 'सिग्घु एउ कि उ' निविं वृत्तउं, 'जेण महायणु होइ सइत्तउं, '
१. भाइया जे० ॥ २. लोई जे० का० । ३. बेज्जह जे० ॥ ४. बेजिं जे० त्रु० ॥
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नरसिंघ कुमरस्स कहाणयं
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