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सिरिसंतिनाहचरिए
नरसिंघकुमरस्स कहाणयं
जय संसारमहोयहितारय ! भवियह सिवसुहसंपयकारय ! जय बुहपहु चउनाणिहिं जुत्तय ! पंचसमिय ! तिहिं गुत्तिहिं गुत्तय !, जय विजाहर-तियसनमंसिय !, पवरविबुहजइगणसुपसंसिय !, दय करेवि अम्हहं दुक्खत्तहं, देहि सोक्खु संसारविरत्तहं,' तं निसुणवि मुणिनाहु पयंपइ 'धम्मलाहु तुह नरवइ ! संपइ, जो नीसेसरिय निद्दारइ, जो रागाइवेरि विद्दारइ, जो गुरुपावपंकु पक्खालइ, जो कल्लाणसयल दक्खालइ, जो सुह-सग्ग-ऽपवग्गह कारणु, होउ सु धम्मलाहु दुहदारणु', इय गुरुपय वंदिवि, मणु आणंदवि, सेसे वि हु मुणिवर नमइ, पुणु सुद्धमहीयलि, करवि करंजलि, उवविटुउ णिवु सुद्धमइ ॥११॥२६२४॥ अह जंपिउ सूरि जयंधरेण, पक्खुभियमहण्णवसमसरेण “भो ! भमइ जीव भवगहणणणि चुलसीईलक्खजोणिहिं पमाणि,
१. पंचहि स जे०॥