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सिरिसंतिनाहचरिए
हसियाई रमियाई उबगूहिय-ललिय- खिज्जियव्वाई | मम्मणपयंपियाई किं पम्हुट्ठाई तुह ताई ? ॥११५॥२४४०॥ जइ कहवि न आगच्छसि, तो मुहचंदं पि मज्झ दंसेहि । जेण कयत्था होउं खिवामि जलहिम्मि अप्पाणं' ॥११६॥२४४१॥ तो तीए कूडभणियव्ववयणरयणाए लज्जिओ अहियं । जिणरक्खिओ णिरिक्खड़ पच्छाहुत्तं खणद्वेण ॥११७॥२४४२॥ जक्खो वि चिंतइ इमं “अहो ! सुखुद्दाए भेयविन्नाणं । णिरवेक्खस्स वि जेणं एईए उल्लियं चित्तं ॥११८॥२४४३॥ ता मच्चुगलत्थल्लाए पणोल्लिओ एस जेण एईए । अवयक्खइ सम्मुहयं" आघयणं तारिसं दहुं ॥११९॥२४४४॥ उल्लालिऊण तो सो खित्तो एएण णिययपट्टीओ । नीरमसंपत्तो वि हु पडिच्छिओ तीए सूलेण ॥१२०॥ २४४५ ॥ 'हा दास ! मओ तं सि' त्ति जंपिरीए सुदुद्रुवयणाई । खग्गेण खंडिऊणं दिसाबलिं करिय पक्खित्तो ॥१२१॥२४४६॥ हरिसियचित्ता पुणरवि जंपइ जिणपालियं मए 'नाह ! । अलियं जंपेऊणं एस अणिडो त्ति संगहिओ ॥१२२॥२४४७॥ मह हिययम्मि य सामिय! तं चैव य आसि बल्लहो अहियं । ता तं पीइं सरिउं पिययम ! अवगूहसु ममं ' ति ॥ १२३ ॥२४४८ ॥ क्खेण तओ एसो भणिओ एत्थंतरम्मि जइ 'भद्द ! । पत्तिजसि एयाए तुज्झ वि एसेब य गइ' त्ति ॥ १२४ ॥२४४९॥ अह सो निच्चलचित्तो तीए सरूवं दढं निएऊण । बच्चइ जक्खेण समं खणेण चंपाए संपत्तो ॥ १२५॥२४५०॥
१. उल्लयं का० ॥। २. खग्गेण जे० ॥
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मायंदिदारयाणं कहाणय
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