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आचार्य श्री जी ने अन्य छन्दों का भी प्रयोग किया है। पद्य के चार ही पाद होते हैं मगर इस ग्रन्थ में दो तीन पद्य ऐसे भी हैं जिनके पांच पाद हैं। आचार्य श्री जी ने ग्रन्थ में प्राकृत भाषा के अतिरिक्त एक कथा, कुछ सूक्तियां, परमात्मस्तुतियां, अनेकों वर्णन (विशेषत: युद्ध वर्णन ) अपभ्रंशभाषा में लिखे हैं । अपभ्रंशभाषा में लिखित कथा एवं अन्यान्य वर्णनों में दण्डक छन्द का प्रयोग अधिक किया है। दो पद्य पैशाचीभाषा में हैं तो एक पत्र संस्कृत भाषा में भी लिखा है जिसे पढ़ने से यह जाना जा सकता है कि विक्रम की १२ वीं शताब्दी में राजा, महाराजाओं को प्रजा पत्र के माध्यम से अपने सुख दुःख, अनुकूलता प्रतिकूलता, इच्छा और राज्यव्यस्था आदि विषयों को किस प्रकार से सूचित करती थी, देखें पृ० ५२३ । आचार्य श्रीजी ने संस्कृत भाषा में पत्र के अतिरिक्त संस्कृत भाषाके कुछ सुभाषित श्लोक भी उद्धृत किए हैं, देखें पृ० २११ । आचार्य श्री जी ने प्रसंग प्रसंग पर विषयों की पुष्टि के लिए कई आगमिक गाथाएं भी उद्धृत की हैं, देखें पृ० ६८ । इनके अतिरिक्त जिनपाल, जिनरक्षित नामक दो भाईयों की कथा एवं उज्झिका, भक्षिका, रक्षिका और रोहिणी नामक श्रेष्ठपुत्रवधुओं की परीक्षाकथा षष्ठ अंगसूत्र ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के अनुसार लालित्यपूर्ण प्राकृतभाषा में रची है, देखें पृ० २४६ - २६१ । ३८५-३९३ । आदि अनेक विशेषताओं के आकर के रूप में यह ग्रन्थ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की उपादेयता
इस ग्रन्थ की उपादेयता का अनुमान तो इस बात से लगाया जा सकता है कि इस ग्रन्थ में लिखित कुछ कथाओं की एवं सुलस नामक श्रावक के द्वारा करवायी गई अन्तिम आराधना पृ० ७५३ ७५९ की स्वतंत्र रूप से ताड़पत्रों एवं कागदों पर लिखी हुई प्रतियां हस्तलिखित प्रतियों के भंडारों में उपलब्ध होती हैं, देखें मुद्रित श्री जैसलमेरुदुर्गस्थ खरतरगच्छीय युगप्रधान आचार्य श्री
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