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प्रस्तुत कथाग्रन्थ।
जैन साहित्य में लघु एवं बृहत् अनेक चरित्रकथाग्रन्थ हैं । रचनाकार, भाषा, संग्रह आदि कई विशेषताओं के कारण सबका निजी महत्त्व है । परन्तु प्रस्तुत कथाग्रन्थ तो जैन साहित्यरूपी भूमि में धर्मकथा-चरित्रकथारूपी रोहण नामक पर्वत के ऐसे धराखण्ड के समान है जहाँ पर कि अपनी तेजस्वी किरणों से अभ्यासी जनों के चित्त को चमत्कृत, बुद्धि को बोधपूर्ण और आत्मा को आनन्द तथा आश्चर्यभाव से भर देने वाले महाघ हीरे जहां तहां बिखरे हुए हैं।
यह ग्रन्थ गंगा की धारा के समान है जो कि जहां तहां से अर्थात् प्रसंगों के अनुसार अवान्तरकथाओं, उपदेशवाक्यों, सुभाषितों, प्रहेलिकाओं, किंवदन्तियों, धर्मशिक्षाओं, नीतिशिक्षाओं, सांस्कृतिक सामग्री से, तथा नगर, पर्वत, राजा, रानी, श्रेष्ठी, वापी, सरिता, उद्यान, प्रासाद, देवालय ऋतु आदि के सुन्दर जीवन्त वर्णनों से एवमेव भक्तिपरक, स्वरूपबोधक परमात्मस्तुतियों, मुनिस्तुतियों आदि रूप छोटे बड़े झरणों एवं नदीप्रवाहों के संगम से विशाल होता हुआ श्रुतसमुद्र को समर्पित हुआ है।
ग्रन्थकार पूज्य आचार्य श्री जी ने अन्य श्रुतस्थविर आचार्यभगवन्तों की रचनारूप समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा जैसे अनेक प्राचीन ग्रन्थरत्नों की भांति इस ग्रन्थ को अद्भुत एवं शान्त रसों से तो समृद्ध किया ही है मगर प्रसंगानुसार करुण, वीर, रौद्रादि रसों से भी इसे समृद्ध किया है। इस ग्रन्थ में यमक, उत्प्रेक्षा, उपमा आदि काव्यालङ्कार तो मानसरोवर के किनारे बिखरे मुक्ताकणों की तरह प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। ग्रन्थ गद्य-पद्यमय होता हुआ भी पद्यबहुल है। पद्यों में प्रमुख रूप से आर्याछन्द का प्रयोग है मगर