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सिरिसंतिनाहचरिए
मित्ताणंदाईणं कहाणयं
जइ सायरम्मि पविसइ महल्लहल्लंतरंगिरतरंगे । तहवि न छुट्टइ को वि हु संसारे पुव्वविहियाओ ॥३९७॥२२१४॥ जइ विसइ वणणिगुंजे अहवा आरुहइ सेलसिहरम्मि । गयणयले वा वच्चइ तहवि न पुव्वक्कयं मुयइ ॥३९८॥२२१५॥ जइ पविसइ पायाले, चिटुइ लोहस्स पंजरे वा वि । रुक्खऽग्गे वा दुरुहइ तहा वि छुट्टइ न देव्याओ॥३९९॥२२१६॥ जइ वा वच्चइ दूर चइत्तु देसंतराई भयभीओ । तत्थ वि पुव्यकयाई पुरओ गंतूण चिटुंति ॥४०॥२२१७॥ तहाबिहवु बंधणु मरणु दालिङ, धणु परियणु कित्ति जसु, सुहु वि दुक्खु जे जेण जइयह, पावेवउं अवसु फुड होइ तस्स तं तेण तइयहं । जं जसु कारणि जहिं वयसि, जहिं मंडलि, जहिं देसि, विहिभंडारिणि घडिउ पुणु आणइ तं तसु रेसि ॥४०१॥२२१८॥ लंधिज्जंति गिरिंदा, लंधिज्जइ जलनिही वि गंभीरो । लंघेऊण न सक्का कयंतकरकड्ढिया रेहा" ॥४०२॥२२१९॥ इय एवंविहसामत्थयम्मि विहिविलसियम्मि जायम्मि।रे जीव! इमाणुवरिं मा कोवं कुणसुमणसा वि"॥४०३॥२२२०॥ एवं चिंतंतो सो मज्झत्थयभावणाए बटुंतो । उल्लंबिओ तहिं चिय वडरुक्ने णिरवराहो वि ॥४०४॥२२२१॥ रममाणाणं गोवाण तत्थ ठाणम्मि दिव्बजोएण । सहस त्ति संपविट्ठा उन्नइया तस्स बयणम्मि ॥४०५॥२२२२॥ तं सोऊण राया देवीए समन्निओ महासोयं । उव्वहमाणो विलवइ दुहिओ एवं पयंपतो ॥४०६॥२२२३॥
१. "इ इह लोहपं° पा० ।। २. अवस जे० ।। ३. देव्वजो जे० त्रु० ।।