________________
सिरिसंतिनाहचरिए
"सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणाम्, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथयुषो नीलपक्ष्माण एते यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ॥१२१॥१९१६॥ तामणि फुरइ विवेउ, ताव गुरु जणु ओलग्गइ ताविंदिय वसिकरइ, ताव उवएसु विलग्गइ |
ता आसंकइ कुलकलंकु, मयरद्धयभल्लिहिं जा रमणिहि वसिहोइ नवि य नरु मोहणवल्लिहिं ॥१२२॥१९१७॥ ता तवु करइ विसुद्धचित्तु, ता सत्थु विभावइ, ता आयारु समायरेइ, ता भावण भावइ ।
ता धम्मम्म धरेइ चित्तु ता लोयहं लज्जइ, जा नवि विसमकडक्ख सरहिं नरु नारिहिं भिजइ ॥ १२३ ॥ १९१८॥ गह-विस-भूयपणासण अत्थि अणेग णर, अत्थि जि वाहिं पणासहिं तक्खणि बेजवर ।
जाणामिव सुवेजसुसत्थग्गम वहइ नेहगहिल्लह चित्तह जो ओसहु कहइ" ॥१२४॥१९१९॥ जुज्जइ य इमं सव्वं कडक्खविक्खेवयाइ कलियासु । पच्चक्खसुंदरीसुं, एयं पुण अब्भुयं जायं ” ॥१२५॥१९२० ॥ इय जा चिंतइ सेट्ठी मित्ताणंदेण जंपिओ ताव । 'किं ताय ! एवमच्छह ? जेण उवायं ण चिंतेह' ॥ १२६ ॥ १९२१॥ १० सेडी वि आह 'न फुरइ मज्झचित्तम्मिको विहु उवाओ। जइ जाणसि किंपि तुमं उवायमेत्थं भणसु सिग्धं ' ॥ १२७॥१९२२ ॥
१. बिहावइ जे० विना ॥। २. जाव न विस° त्रु० का० ॥। ३. °सरेहिं जे० ॥। ४. सुविन जे० ।। ५. न हु फुरइ पा० जे० ।। ६. मज्झ का० विना ||
मित्ताणंदाईणं
कहाण
२११