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नाणगब्भस्स कहाणयं
सिरिसंति- तुह विरहे मह एयं धूली-तिणतुल्लयं व पडिहाइ । मंती वि आह 'एवं एयं नत्थेत्थ संदेहो ॥३०॥१८४७॥ नाहचरिए किंतु मह धिई निमित्तं रक्खिज्जउ सामि ! मा वियप्पेह' । राया वि हु पडिवज्जियवइ नियदिद्धिविसयम्मि॥३१॥१८४८॥
* पाहरियाई सुत्थं काउं पडियग्गए तिसंझ पि । मंती वि चेइयघरे करेइ अष्टाहियामहिमं ॥३२॥१८४९॥ *पएइ समणसंघ दीणाऽणाहाण देइ दाणाई । घोसावइ संतीओ अभयपयाणाई दावेइ ॥३३॥१८५०॥ * सन्नद्धबद्धकवएहिं गहियविविहाउहेहिं पुरिसेहिं । हय-गयमाईहिं तहा रक्खावइ मंदिरं निययं ॥३४॥१८५१॥
एवं कमेण पत्ते पनरसमे वासरम्मि सहस त्ति । रायंतेउरमज्झे उटुइ एवंविहा वाया ॥३५॥१८५२॥
जह 'नाणगब्भपुत्तो छिंदित्ता केसपासयं एसो । जाइ सुबुद्धी निवकन्नयाए रयणावईए दुयं' ॥३६॥१८५३॥ * तं सोउं नरनाहो जंपइ ‘पावस्स पेच्छ दुचरियं । मत्तो वि जेण हत्थी नियसुंडारक्खणं कुणइ ॥३७॥१८५४॥
ता मा कोइ भणेजउ जह किर राया असंगयं कुणइ' । इय भणिऊण विसज्जइ मंतिविणासाय नियसेन्नं ॥३८॥१८५५॥ अइरुडेणाऽऽइट्ट सेन्नं जह 'तग्गिहम्मि मा मुयह । कम्मयरं पि हु' एयं भणियं सेन्नं दुयं जाइ ॥३९॥१८५६॥ मंतिबल-निवबलाणं अभिट्टो जाव गरुयसंगामो । ता गिहचेइयपुरओ झाणणिविटुस्स सचिवस्स ॥४०॥१८५७॥ १. घिईनि का० विना ।। २. अविय पा० ।। ३. यरिं पि त्रु० पा० ॥