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मच्छोयरस्स पुव्वभववण्णणं
सिरिसंति- जह जह सा णिप्फज्जइ पेच्छइ य मणोहरं तह तहेव । रसवत्ताइसएणं वएइ अप्परिमियं पुण वि ॥१५॥१६१७॥ नाहचरिए कारावेइ पइटुं वरविच्छड्डेण भावणाकलिओ। घोसावेइ अमारिं देइ य संघस्स वरदाणं ॥१६॥१६१८॥
कारावए य अढाहियाइपूयं मणोभिरामिल्लं । साहम्मियपडिवत्तिं करेइ तंबोलमाईहिं ॥१७॥१६१९॥ एवं सव्यं काउं चिंतइ "वइयं मए बहुं दव्यं । होही फलं न व त्ति य को किर एवं वियाणेइ ? ॥१८॥१६२०॥ सत्थेसु पुणो भन्नइ जह होइ अणोवमं फलं एत्थ । मह बुद्धी संसइया न हुाइ विणिच्छए कहवि" ॥१९॥१६२१॥ इय संसयजुत्तो वि हु करेइ पूयाइयं असेसं पि । अह अन्नम्मि दिणम्मि जा चिटुइ गेहमज्झत्थो ॥२०॥१६२२॥ ता तवसोसियदेहे इरियासमिए सुबंभचेचइए । विहरणहेउं एंते पेच्छइ वरसाहुणो दोन्नि ॥२१॥१६२३॥ ते दटुणुभिजिररोमंचो नियइ रसवइं सहसा । बहुभक्खाइसमेयं पेच्छेउं तं समूससिओ ॥२२॥१६२४॥ पडिलाहइ ते मुणिणो भत्तिभरणिभरो सहत्थेहिं । वंदित्तु तो विसज्जइ चिंतइ य तओ "अहं धन्नो ॥२३॥१६२५॥
जस्स इमे महमुणिणो पत्ता गेहम्मि तह य गहिओ य । अइफासुय-एसणिओ आहारो देहजवणटा" ॥२४॥१६२६॥ * अह अन्नया कयाई पासुत्तो पुण वि रयणिसमयम्मि । जग्गेऊणं चिंतइ जाव य भावाण परमत्थं ॥२५॥१६२७॥
ताव य अवंतरेणं संजाओ भावसंकमो तस्स । “किं इमिणा सव्वेणं धम्मेण अदिटुविसयम्मि ॥२६॥१६२८॥
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१. कहिं पा० ।। २. इते जे० का० ।। ३. इत्रु०॥