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सिरिसंतिनाहचरिए
चउविहनाणसमग्गो, वररूवेणं अणंगसारिच्छो । खंतीए धरणिसमो, गंभीरतेण जलहि व्व ॥ ५३२॥ १५६४॥ चंदो व्व सोमयाए, तवतेएणं दिवायरो चेव । सजलजलओ सरेणं, धम्मो रुवि व्य पञ्चक्खो ॥ ५३३ ॥ १५६५ ॥ तस्स य वंदणहेउं नीसरई सयलपुरवरजणोहो । हाओ कयबलिकम्मो सियवत्थाहरणसोहिल्लो ॥ ५३४ ॥ १५६६॥
ओ विहु नियभवणे उवरिं चडिओ कहिं पि पेच्छेइ । तं वच्चतं लोयं पुच्छइ निययं परीवारं ॥ ५३५॥१५६७॥ ‘कत्थ इमो जाइ जणो संव्यो वि हु पूयपडलयविहत्थो ?' । अह जाणियपरमत्थो साहइ एगो तहिं पुरिसो ॥५३६॥१५६८॥ 'सामि ! इह को वि नाणी समागओ मुणियसयलसत्थऽत्थो । उज्जाणे तस्स इमो जाइ जणो वंदणनिमित्तं ' ॥ ५३७ ॥ १५६९॥ भइ धणो 'जइ एवं, तो सज्जं रहवरं करेह त्ति । जेणऽम्हे वि वयामो तस्स मुणिंदस्स नमणत्थं' ॥ ५३८ ॥१५७० ॥ तेहिं वि 'तहत्ति' विहिए तो रहवरमारुहित्तु जाइ धणो । वंदित्तु पायकमलं मुणिवइणो विसइ तप्पुरओ ॥ ५३९ ॥१५७१॥
भय पहु पथावर धम्मुवएसं धणाइपरिसाए । जह निसुणह 'भो भव्वा ! मह वयणं अवहिया होउं ॥ ५४० ॥ १५७२ ॥ “संसारम्मि असारे दुहपउरे होइ नेय जीवाण । धम्मेण विणा सोक्खं ता धम्मे आयरं कुणह ||१|| १५७३ ॥ सो वि हु जइ भावेणं कीरइ सुद्धेण एगरूवेण । तो जीवो पावेई णिरंतराई वरसुहाई ॥२॥१५७४ ॥
१. सयलो वि पा० विना ||
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मच्छोयरकहाण
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