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________________ भावधर्म-* पशाशक आलोकस्य सप्तमेदाः चूर्णि ॥६३॥ वक्खाणगाहाओ-" निक्खमपवेसमंडलि सागारियठाण परिहरिय ठाइ । मा एगासणभंगो अहिगरण अंतरायं वा ॥१॥" निक्खमपवेसा वञ्जिऊण उवविसं ति, तहा मंडलिपवेसं च वजंति, तहा सागारियठाणं च परिहरि मुंजंति, मा सागारिए समागए एक्कासणभंगो भवेजा, अधिकरणं वा अन्नण पवइएण सह, अट्ठाणे उवविसिउं भुजंतस्स अंतराय च भवइ, कह?. सो साहू अन्नस्स ठाणे उवविट्ठो, सोवि साहू आगओ पडिक्खंतो अच्छंति, एवं च अंतराइयं कम्मं बज्झइ । इयाणि दिसित्ति" पच्चुरसि परम्मुहपट्टि पक्खए या दिसा विवज्जेत्ता । ईसाणग्गेईय ठाएज गुरुस्स गुणकलिओ॥१॥" पच्चुरसित्ति गुरुअभिमुहं वजेउंति भणियं होइ, सेसं सुगमं । इयाणि पगासणयत्ति-"मच्छियकंटाईणं तु जाणणट्ठा पगासमुंजणया। गललग्गणठिदोसा वागुलिदोसा जढा एवं ॥१॥" सुगमा, एवं इयाणिं भायणत्ति-"जे चेव अंधयारि दोसाते चेव संकडमुहंमि । परिसाडी बहुलेवाडणं च तम्हा पगासमुहे ।। १ ॥ पुव सुगम, वियद्धेण अहिगदोसे भणइ-परिसाडिन्ति बाहिं छडिज्जइ, बहुलेवाडणं चत्ति बहु( वड्व)विच्चं खरंटिजइ, हत्थस्स उवरिपि भुजंतस्स संकडे, तम्हा पगासमुहे भायणे भोत्तवंति । इयाणि पक्खे. वणत्ति-'कुकडिअंडगमेतं अविगियवयणो उ पक्खिवे कवलो' सुगमं । इयाणि गुरुत्ति-'अइखद्ध कारगं वा जंच अणालोइयं होजा ।' गुरुस्स आलोए भोत्तवं, जइ पुण गुरुदरिसणपहे न भुंजइ, ततो कयाइवि अइखद्धं-अइबहुगं भक्खेजा निस्संकोत्तिकाउं पच्छा गिलाणो भवेजा, अपडुसरीरो य गुरुअदरिसणपहे भुंजतो कयावि अकारगं-अपत्थंति भुजेजा निव्भउत्तिकाउं, कयावि भिक्खामडतेण निद्धमहुरं दवं लद्धं भवेजा, तं च अणालोइयंपि भुजेज्जा एगते, मा ममं आयरिओ निवारिहित्ति, अओ एएसिं जाणणट्ठा गुरु पालोए तओ उवभुंजेजा, जेण गुरुसमीवत्थं भुंजंतं दर्दु पउरं भक्खेंतं निवारेइ, तहा ॥६३॥ Jain Education Intel For Private Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600057
Book TitleAdya Panchashaka Curni
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1952
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size10 MB
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