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________________ आ० प्र० एरिसं जायं ॥ २२० ॥ तो पुच्छइ पुहविवई सामिअ ! साहेसु अम्ह संदेहं । कम्म उबक्कमो वा पहाणमिह होइ जीवाणं ? ज्ञानाचार.2 ॥२२१॥ नाणी मुणी पयंइ नरवइ ! दुण्हपि इत्थ तुल्लत्तं । कथवि कम्मं कत्थवि उवक्कमो होइ इह बलिओ॥२२२॥ तदुक्तं॥१०॥ "कस्थवि जीवो बलिओ कत्थवि कम्माइं टुंति बलिआई । जीवरस य कम्मरस य पुत्वनिबद्धाई वेराई ॥२२३ ॥ कम्मवसा खलु जीवा जीववसाई कहिचि कम्माई । कत्थइ धणिओ बलवं धारणिओ का थई बलवं ॥२२४ ॥ कम्मं जइवि जिआणं भवं भमंताण देइ अइदुक्खं । तहवि निहणेइ सवं धम्मरस उवक्कमो तंपि ॥२२५ ॥ कहमनहा अणंता अणंतभवसंचिआणऽणताणि कम्माणि निहणिऊणं संपत्ता सासयं सुवखं ॥ २२६ ॥ चुलणी दढप्पहारी कुकम्मकारीवि इह उवक्कमओ। सिद्धा गया य सग्गं चिलाइतणओ अ रोहिणिओ ॥ २२७ ॥ ता चेवऽणिनिहरकम्मखयहा उवक्कमो निच्च । धम्मत्थिरहिं किन्जइ एवं हि उबक्कमो बलवं ॥ २२८ ॥ तदुक्तम्-" सर्वकर्मसु सदैव देहिनामुद्यमः परमवान्धवो मतः। यं विना हृदयवाञ्छितान्यहो, नाप्नुवंति नियतं यदि स्थिराः॥२२९ ॥ " जत्थ विविहेऽवि विहिए उवक्कमे नेव सिज्झए कज्ज। कम्मं तत्थ समत्थ तिव्वतममवस्स भुत्तई ॥२३० ॥ वीरजिणो नीअकुले मल्ली इत्थी परिक्खिनिवमरणं । तह नंदिसेण अद्दयकुमारपडणं च कम्मरसा ॥२३१॥ अवाचि च-" दृग्नाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे, नीचैर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतेर्मल्लिनाथेऽबलात्वम् । निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः स्याच्चिलातीसुतेऽपि, इत्थं कात्मवीर्य स्फुटमिह जयतः स्पर्द्धया तुल्यरूपे ॥२३२॥ इअ कम्मुवकमाणं सुणित्तु तुल्लत्तमुट्टिओ राया। सम्मं धम्मउवक्कममई कुकम्माणि निहणे ॥ २३३ ॥ अह विहिणा महिMणाहो रज्जं जामाउअस्स दाऊणं । दुहिअदुहिआइ सहिओ गहिउं दिक्खं गओ मुक्खं ॥ २३४ ॥ अह तत्थ रजसुत्थं | काऊणं पत्थियो पुहविपालो । मघवं व महिड्डीए सकलत्तो निअपुरं पत्तो ॥ २३५ ॥ अथ श्लोकाः-इत्थं चतुर्थपारार्थस्यापि in Education int o nal For Privale & Personal use only E ww.jainelibrary.org
SR No.600056
Book TitleAchar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size11 MB
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