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________________ XXX***XXXXXXXXXXXX*****k श्रा (जरा पुरक के०) वृक्षवस्था संबंधी दुःख, एटले घमपणमा अनेक प्रकार नां कु:ख प्राप्त थाय . य के) वली (रोगा के0) अनेक प्रकारना व्याधि नत्पनथाय ने. (य के०) वली (मरणाणि के०) अनेक प्रकारे मरणनी वेदना पाय , माटे (हु के) निश्चे (जन के०) जे संसारने विषे (जंतुणो के) प्राणी जे ते (की संति के०) क्लेश पामे , ते (संसारो के) संसार जे ते (पुरको के) केवल कुख रूपज दे, अर्थात् आ संसारमा कांश पण सुख नथी. ॥ ३३ ॥ नावार्थ-हे प्रात्मन् ! तुं विचार कस्य के, प्रा जीव ज्यांची जन्मे , त्यांथी ते मरण पर्यंत केवल दुःखमांज वर्ते . केमके, जन्मती वख ते :ख घणु पौडे. ते विषे शास्त्रमा कह्यं के, अग्नि वसे तपावीने, लालचोल करेली सामात्रण क्रोम सोयो, शरीरमा रहेली एवी सामात्रण कोटि रोमरा | 'य तेने विपे चांपतां जेटली वेदना थाय, तेथी पाठगुणी वेदना गर्नने विषे था- * * य , तथा जन्मती वखतनी वेदना तो, कांश कही शकाय तेवी नथी; जेम जं *तरमामां घालेला सोना रुपाना तारने, जेम बलात्कारे खेंची काढ़े , ए दृष्टांते K Jain Education Interchal For Private & Personal Use Only rww.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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