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________________ बै० ४१ ************** वाना वाव वालुं एवं (शरीरं के०) या शरीर बे: (श्र के०) वली (अन्नो के ० ) शरीर थकी जूदो एवो, अने (सासयसरूवो के०) शाश्वतुं वे स्वरूप ते जेनुं, एवो (जीवो के०) जीव बे. तेने (कम्मवसा के०) कर्मना श्राधीनपणाथी शरीर नी साधे (संबंधो के ० ) संयोग थयो छे. माटे (इन के०) ए शरीरने विषे (तुफ ho) तहारे (को के० ) इयो ( निब्बंधो के०) अनुबंध बे ? एटले ए शरीरने विषे तहारे शी मूर्द्धा बे ? ॥ ३० ॥ भावार्थ- दे जीव ! तुं प्रवेद्य, अजेय, अजर, अमर, ध्रुव, अनंत ज्ञानमय, अनंत दर्शनमय, अनंत चारित्रमय, अनंत वीर्यमय; ज्योतिःस्वरूप, पवित्र, प्र लिंग, अव्यक्त, निर्लेप, निरंजन, अने श्रानंदमय एवो तुं निश्वे नय मते बे. परंतु अनादि कालश्री कर्मना वशे करीने, अनित्य, अने अशाश्वत एवं ग्रने त्वचा, मां स, दारुकां, रुधिर, नसो, मेद एटले हामकां उपर रहेली चाममी, अने मका एटले दारुकामा रहेलुं मांस, अने मल मूत्र, ने दुर्गंध ने बिनीत्स (बिहामणी) एवी वस्तुए नरेला चामकाना कोयला रूप श्रा शरीर बे, तेवा शरीरने विषे हे For Private & Personal Use Only Jain Education International ************************* TO ४१ www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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