SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ***** दियो जे ते. तथा (सधेवि के०) सर्व एवा पण (सयण संबंधा के०) स्वजन संबंध जे ते ( पत्ता के०) पाम्यो बे (तो के०) ते कारण माटे (जइ के०) जो (प्रप्पा के०) आत्माने (मुलसि के०) जाणे वे, तो (तनो के०) ते शन्दादिक थकी (विरमसु ho) विराम पाम्य. अर्थात् निवृत्ति पाम्य ॥ २५ ॥ नावार्थ- हे श्रात्मन् ! संसारने विषे अनादि कालथी भ्रमण करतां श्रा जी | वे देव मनुष्यादिकनी सर्वे समृद्धियो पामी बे. तथा सर्वेनी साथ, पोतानो मा ता पिता जाई जार्यादिक संबंध, जोगायो वे. माटे तेमां तहारे मोह राखवो घ तो नथी. केम, जे स्त्रीबे, ते पराजवनुं स्थानक डे, तथा जे बंधुजन बे, तें बंधन बे तथा जे विषयसुख बे, तेज विष बे. (जेर बे.) ए प्रकारे जे तहारा शत्रु े, तेज तुं मित्र जाणीने तेने विषे मोह राखीने बेगे बे. ते कारण माटे एक पोताना आत्म स्वरूप साधुं सुख मानीने, ते शद, वजन, इत्यादिक नुं कल्पित सुख मानीने अर्थात् तेने दुःखरूप जालीने ते सर्व थकी निवृत्ति पाम्य ॥ २५ ॥ Jain Education Internal For Private & Personal Use Only ************************ www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy