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________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXX**** अर्थ-रे जीव के) हे अज्ञानी जीव! (सुश्रा के) पुत्र तथा पुत्रीयो जे ते (विदति के)विघटे ठे. अर्थात् तेनो विजोग प्राय बे. तेज रीते (बंधवा के) वजन जे ते (विहति के) विधटे . अर्थात् खजननो पण विजोग प्राय बे.* (य के) वली (वलहा के) वहाली स्त्रीयो पण (विहमति के) विधटे . ए टले तेनो पण विजोग थाय . एज रीते सर्व वस्तुननो विजोग श्राय , पण | *(को के) एक (जिगन्नणिन के) जिनपरमात्माये कहेलो (धम्मो के) धर्म | *जे ते (कहवि के) क्यारे पण (न विहम के) वियोग पामतो नश्री.॥१२॥ लावार्थ-हे मुग्ध जीव! तुं विचार करून के, या संसारमांतहारं कोण ? केम के, पुत्र, वजन, अने वहाली स्त्रीयो इत्यादिक सर्वेनो विजोग थाय .ए टले तेमने मूकीने तुं जश्श, अथवा तने मूकीने ते जशे. माटे ज्यां संयोग , *त्यां निमाये विजोग बेज. पण एक जिनराजनो कहेलो धर्म एटले जीवने कुःख |* मां पमतां धरी राखे माटे धर्म कहीए, ते धर्मनो को काले पण विजोग नथी । थतो. अर्थात् प्रा जीवने साचुं सगपण तो धर्मनुज . अने बीजुं सर्वे सगपण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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