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________________ SX** *** **** AAXXX श्री तमाम उलटी रीते जाणवा जेवू दे. माटे ते वार्त्तानो विचार करतां जव्य प्राणीनने तो दयाना अधिक प्रणामश्री कंपारो व्या विना रहेज नही!! जेम के, कालरूप असंतोषी एवो एक नमरो ने. ते पृथ्वीरूप कमलमांथी सोकरूप * तमाम रसने, व्याधि वेदनारूप क्रूरपणुं वापरीने चूशी ले ले. एटले कोइ माण * सने ते काल लक्षण कस्या विना रहेतोज नश्री. इहां पृथ्वीरूप कमलनुं शेष* नामरूप नाखवु कह्यु, ते लोकोक्तिश्री जाणवू. एटले लोकमां एवं कहेवाय ने के, प्रा बधी पृथ्वीने शेषनागे माया उपर नपामी सीधी ने. वली ए पृथ्वीरूप कमलमा पर्वतो, ते केसराने ठेकाणे . ने दश दिशायो ते महोटां महोटां पान मांने ठेकाणे . आवा महोटा कमलनो रस निरंतर पीतां पण कालरूप नमरो आज सूधी पण तृप्त थयो नथी; ने थतो पण नथी, अने घशे पण नही. माटे हे नव्य प्राणियो! कालरूप नमराना आस्वादनमा न अवाय, एवा आत्मस्वरूपने पामवाना साधनमां; प्रमाद गेमीने नद्यम करो!!॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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