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________________ s KXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX - अर्थ-(रे जीव के) हे जीव! तुं (निसुणि के०) सांजस्य के जे, (चंचल | सहाव के०) चंचल स्वनाववाला (सपलवि के०) सर्व एवाय पण (बननाव के०) शरीरादिक बाद्यन्नावने तथा (नवन्नेयपरिग्रह के०) नव नदवाला परिग्रहनो | (विविहजाल के०) अनेक प्रकारनो समूह तेने (मिल्हेविणु के०) मूकीने पर | लोके जश्श; ए हेतु माटे (संसारि के०) संसारने विषे (अछि के०) जे शरीरादि। * क देखाय , (सहु के०) ते सघल (इंदयाल के इंजाल समान .॥ ७० ॥ नावार्थ-हे आत्मन्! तहाकै हितकारी एवं आ एक वाक्य सांतव्य.आ देखातो शरीरादिक सघलो बाघलाव , इंजाल समान . एटले नव प्रकारनो परिग्रह ते सघलो चंचल स्वनाववालो . एटले कणमां देखाय अने कणमां नाश पामी जाय एवो . एटलुज नहि पण संसारमा जे जे वस्तु देखाय में, ते सर्वेने तुं इंजाल समान जागीने तेने विषे मोह ममत्व न कस्य. कारण के, ते सघला बाह्यनावने मूकीने तुं एकलोज परलोकमां जईश, पण पूर्वे कही ते. * १ धन. २ धान्य. ३क्षेत्र, ४ घर. ५ मुत्रर्ण. ६ पुं. ७त्रांवुपितल. विपद, ए चतुष्पद. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX DHANAINA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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