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________________ ***** या जगत्मा रहेला जे घृतादिक सघला सारा सारा पुजलोव मे पण, ते कुधानी शांति थाय तेम नहोतुं. एवी कुधावेदनी तें प्रवशपसा मां श्रनंतीवर सहन | करी बे. माटे तने उपदेश करवानो एटलोज वे के, आज स्वाधीनपणासां एका सकर, अथवा एक उपवास करवो, तेमां पण तने मदोटो विचार थर प बे. अने वली तुं एवं बोले वे के, महाराथी संवत्सरीनो उपवास पण बनी शकचो का बे. कारण के, महाराथी तो एक घरिवार पण मूख्युं रहेवातुं नथी. एम कहने नेक प्रकारां सारां सारां जोजन करावी जमे बे, परंतु हे मूढ जीव ! आखों जन्मारो थने तें केटला मग घृतादिक मिष्ट पदार्थो खाधा ह | शे? तेनुं सुख लेश मात्र पण आज तने रह्युं नही. केम के, जो तुं तहारा दाये। तहारी जीन उपर हाथ फेरवी जो के, ते घृतादिक पदार्थोनी कांइ पण चिकाश जगाय बे ? अर्थात् नथी जलाती. तेमज हवेथी पण तु अनेक प्रकार ना पाप प्रपंचादिक करीने सारी सारां जोजन करीश, तोय पण पूर्वनी पेठे ते जिवा इंडि तृप्त थवानी नथी. श्रने जिह्वा इंदितुं पोषण बे, तेज सर्वे इंदियो Jain Education International For Private & Personal Use Only ********* ************* www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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