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वै
प्राप्तिने विषे नद्यम कर! ॥६५॥
आसीत् अनंतकृत्तः । संसारेनरकनवे तव धापि ताशी
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आसी अणंतखुत्तो । संसारे ते तुहावि तारिसिया॥ यां प्रशमयितुं सर्वः पुद्गलकायोपिघृतादिरपि न तीर्यात् न शश्नुयात्
जं पसमेउं सद्यो । पुग्गलकानवि न तारिजा ॥६॥ अर्थ-रे जीव! (संसारे के०) नरक लवरूप संसारने विषे (ते के०) तने तारिसिया के०) तेवा प्रकारनी (बुहावि के) कुधा पण (अणंतखुत्तो के०) अनंतीवार (प्रासी के०) नसन था हती के, (जं के) जे कुधाने (पसमेनं के०) शमाववान (सबो के०) सर्व एवा (पुग्गलकानवि के०) घृतादिरूप पुजलना समूह जे ते पण (न तरिका के०) न समर्थ थाय! ॥६६ ।
नावार्थ-हे आत्मन् ! नरक जवने विषे तने एवी कुधा नत्पन्न पश् इती के,
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