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________________ बै० वली क्यारेक (रुरकगेसु के०) वृक्षना अपने विषे ( वसिय के०) निवास कर्यो ठे. अर्थात् पूर्वे कला सर्व स्थानकोमां तुं धनंतीवार निवास करी आव्यो वे. माटे. तदा निवासस्थान एक ठेकाले नथी. ॥ ५७ ॥ ८३ ************ जावार्थ- कोइ शिष्यने पोताना देशनुं, तथा पोताना गामनुं, तथा पोताने रवानी ईमारतनुं; तथा पोतानी उत्तम जातिनुं, तथा पोताना प्रसिद्ध कुलनुं, तथा पोताना उत्तम वर्ण, इत्यादिक अभिमानने धारण करतो जोइने, गुरु नप देश करे ठे. के, हे शिष्य ! तुं मिथ्या अभिमान शुं करवा करे बे ? परंतु तुं विचार कर के, या संसारमा प्रमण करतां केटली एक बखत तुं पर्वतने विषे पर रूपे व्यो बे. तथा केटली एक वखत पर्वतनी गुफामां पण सिंहादिक प शुरूपे पर श्राव्यों है. तथा केटली एक वखत समुइने विषे जलजंतु रूपे श्रइ श्रा or a तथा केटली एक वखत वृक्षोना श्रप्रजागमां कागमा प्रमुख परूिपे नि वास करी ग्राव्य वे. इत्यादिक घणीक जग्याए निवास करी श्राव्यो बे. माटे त. दारु की एक निवास स्थल बे ? अर्थात् एक परा ठेकाले निवास करवाना For Private & Personal Use Only Jain Education International *********************** RTO m ८३ www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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