SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ************** do १ **** पामीने जलदी धर्मसाधन कस्य ॥ ५४ ॥ धिधिधिक संसारं देवः मृत्वा यत् तिर्यक जवाते ११ १० ‍ १ ย ५ घीधीधी संसारं । देवो मरिकण जं तिरी होई ॥ मृत्वा राजराजाचक्रवर्त्तिनः परिपच्यतेऽतएव नरकज्वालानिः Jain Education International の U G मरिक रायराया । परिपञ्चइ निरयजालाए ॥ यथ ॥ अर्थ - (जं के०) जे कारण माटे (देवो के०) देव जे ते (मरिका के०) मर पामीने ( तिरी के० ) तिर्यंच ( होइ के०) या वे. अर्थात् देवता मरीने ति चमां तथा पृथ्वी आदिकमां उत्पन्न याय बे ! अने (रायराया के०) र जाना पण राजा जे चक्रवर्ती, ते (मरिन्द्रण के०) मरण पामीने ( निरय जालाए के ० ) नर कनी जाला करी (परिपञ्च के) प्रतिशे पचाय बे! माटे (संसारं के०) ते संसारने (धी घी घी के०) धिक्कार थान ! धिकार था !! धिकार था ! ! ! इहां अतिशे धिक्कार जणाववाने माटे त्रण वखत धिक्कार कह्यो े. ॥ ५५ ॥ For Private & Personal Use Only ************************ TO १ www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy