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________________ वै० 90 ************************ गवता दता. तेवामां एकदा समयने विषे, ज्ञानी गुरु श्री धर्मघोषसूरि नगरीनी बहार aurat far पधास्या. वनपालके जइ राजाने वधामली दीधी. राजाये वनपालकने घणुं व्याप्यं पठी बे बांधव, श्री गुरु पासे गया . त्यां विधिपूक वंदन करी उचित स्थानके बेटा. गुरुए पण अवसर जाली धर्मदेशना दीघी जेम के, || शिखरिणीवृत्तम् ॥ सदापात्रः कायः पिषु सुखं स्थैर्यविमुखं । महारोगा जोमाः, कुवलयदृशः सर्पसदृशः ॥ गृहावेशः क्लेशः, प्रकृति चपला श्रीरापे खना । यमः स्वैरी वैरी, परमिह हितं कर्त्तुमुचितम् ॥ १ ॥ अर्थ - शरीर निरंतर अपायरूप वे एटले कष्टरूप, दोषरूप, अने पापरूप एवं महामलिन शरीर बे. तथा स्नेहिनुं सुख पण अस्थिर बे. एटले treat करीने रहित बे. अर्थात् ते क्षणमात्रमा स्नेही पण थाय वे, अने तेज मात्रमा वैरी पण याय बे. अने विषय जोग जे ते, महा रोगरुप बे. aa Jain Education International For Private & Personal Use Only ***** TO 90 www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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