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________________ **** **************** अर्थ - ( जीव के०) हे जीव ! तें दैवयोगथी (जिलधम्मो के ० ) ( जनघम ज ते ( नवलो के ०/ पाम्यो. परंतु ( पमायदो सेां के०) आलस्यादिक दोषे करीने चिएणो के० ) सेव्यो (नय के०) नथी. (हा के०) श्रा घणी खेदकारक वा a. ( ० ) वली (अप्पदेरि के०) हे श्रात्माना वैरिन् ! ( परन के० ) परलोकने विषे तुं (सुबहु के ० ) अतिशे घणुं (विसूरिहिसि के०) खेद पामीश. प्रर्थात् घणोज पश्चात्ताप करीश. ॥ ५३ ॥ जावार्थ हे आत्मन् ! सर्व सुखनी प्राप्तिनुं कारण एवा जैनधर्मने पामीने, केवल प्रमाद दोषश्रीज, ते धर्मनुं सेवन; तें करयुं नही. माटे तुं तहारी मेलेज तहारा आत्मानो महोटो शत्रु प्रयो. एटले आत्मानी हत्या करनारो थयो . माटे तु मरण पामीने परलोकमां शशिप्र राजनी पेठे घलोज शोक करीश. ॥ ५३ ॥ ते शशिप्रजराजानी कथा नीचे प्रमाणे जाणवी. कथा ६वी. सावडी नगरीने विषे शूरमन, धने शशिमन एवे नामे वे नाई राज्य नो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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