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________________ k* ******** ********** ॥ शार्दूलविक्रीमितवृत्तम् ॥ यावत् स्वस्थमिदं कलेवरगृहं, यावजरा दूरतो'। यावच्चेन्श्यिशक्तिमतिहता, यावत् दयो नायुषः । यात्मश्रेयसि तावदेव विउषा, कार्यः प्रयत्नो महान् ।' पोद्दीप्ते जवने हि कूपस्खनन, प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ १॥ अर्थ-(यावत् के) ज्यां सूधी या शरीररूप घर साजुं , तथा ज्यां सूधी जरा नश्री आवी, तथा ज्यां सूधी इंशियोनी शक्ति नाश नथी पामी, तथा ज्यां सूधी आनखं पूरूं नयी थयुं, त्यां सूधी पंमित पुरुषे, पोताना कल्याणने अर्थे म होटो प्रयत्न करवो. अर्थात् रात्रि दिवस परलोके सुख पाय; एवाज साधनमा * वर्तवू. केम के, कोई एवं विचारे के, हालतो जवानी अवस्था ठे, माटे दालमां | संसारनां सुख नोगवीने, पठी वृक्षवस्थामां धर्म साधन करीशं, पण हे सज्जनो! जेम (प्रोद्दीप्ते के) घर अतिशे बलवा मांझयुं. त्यारे जे कूवो खोदवानो उ द्यम करवो, ते केवो कहेवाय? एटले घर बलवा मांड्या पनी कूवो खोदीपाणी १ यावच्च दूरे जरा. २ संदीप्ते. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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