SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PXXXXXXXXXXXXX** अर्थ-हे जीव! (जाव के०) ज्यां सूधी (इदियहाणी के) इंश्योनी हानी, एटले इंश्योर्नु कोणपणुं (न के) नथी अयुं, तथा (जाव के०) ज्यां सूधी (जर सरकसी के) जरारूप राक्षसी (न परिप्फुरई के) नयी प्रकट थई, तथा (जाव के) ज्यां सूधी (रोगविश्रारा के) रोग विकार (न के) नथी प्रकट गया, तथा (जाव के०) ज्यां सूधी (मन्नू के) मृत्यु जे ते (न समुखिबई के) नथी नदय मां आव्यु, त्यां सूधीमां शक्तिने न गोपवतां तहाराधी बने तेटलु धर्मसाधन क रीले; नहिं तो पीश्री तने घणोज पश्चात्ताप थशे. ॥ ३४ ॥ | नावार्थ-हे प्राणिन् ! ज्यां सूधी तहारी इंडियोनो शक्ति नरपूर डे, अनेते शक्तिने जरारूप राक्षसीए लक्षण नथी करी, अने ज्यां सूधी रोग विकार रूप शत्रुए, कायारूप नगरमां घेरो नश्री घाख्यो, अने ज्यां सूधी कालना सपाटामां बरोबर नथी आव्यो; त्यां सूधी तुं जेटलु आत्म साधन करवू धारीश, तेटलु बनी शकशे. माटे जेम बने तेम प्रमाद मूकीने जलदीश्री धर्मसाधन कस्य.॥३॥ वली नर्तृहरिये पण कां ने के, ** ** Jain Education InHKA For Private & Personal Use Only Ww.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy