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________________ श्रीकल्प देवानन्दाया ब्राह्मण्या गर्मात्-कुक्षितः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्या गर्भ संहतः स्थापितः तत्प्रभृति तस्मात्कालादारभ्य च खलु बहवः अनेके वैश्रवणकुण्डधारिणः-वैश्रवण: कुबेरः, तस्य यत्कुण्डम्-आज्ञा तद्धारिणः-कुबेराज्ञापालकाःतिर्यग्जम्भका-तिर्यग्लोकस्थजृम्भकाख्यव्यन्तरविशेषा देवाः शक्रवचनेन=इन्द्राज्ञया यानि इमानि अग्रे वक्ष्यमाणानि पुरापुराणानि अतिपुराणानि महानिधानानि भवन्ति, तद्यथा-पहीणस्वामिकानि-नष्टस्वामिकानि, पहीणसेतुकानि-विनष्टधनचिह्नपरिचायकस्तम्भानि, तथा प्रहीणगोत्रागाराणि नष्टस्वामिगोत्रगृहाणि अत एव-उच्छिन्नस्वामिकानि-सर्वथा विनष्टस्वामिकानि, तथा उच्छिन्नसेतुकानि सर्वथा विनिष्टधनचिह्नपरिचायकस्तम्भानि, तथा उच्छिन्नगोत्रागाराणि%3D सर्वथा विनिष्टगोत्रगृहाणि, ग्रामा-ऽऽकर-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुख-पत्तन-निगमा-श्रम-संवाह-सनिवेशेषुतत्र-प्रामाः-यतोऽष्टादशप्रकाराः करा गृह्यन्ते ते, आकरा: सुवर्णरत्नाद्युत्पत्तिस्थानानि, नगराणि-अष्टादशकर मञ्जरा ।।५६५॥ टीका सिद्धार्थ राजभवने त्रिजृम्भक उदर से त्रिशला क्षत्रियाणी के उदर में लाये गये, उसी समय से, बहुत से कुबेर की आज्ञा को धारण करनेवाले मध्यलोक में निवास करने वाले त्रिभक नामक व्यन्तर देव, इन्द्र की आज्ञा से, जिनके स्वामी नष्ट हो चुके थे, जिनके सूचक खंभे आदि निशान नष्ट हो चुके थे, जिनके स्वामियों के गोत्र और पृह नष्ट हो चुके थे, अत एव जिनके स्वामियों की समृल समाप्ति हो चुकी थी, जिनके सूचक स्तंभ आदि चिह्न सर्वथा उच्छिन्न हो चुके थे, जिनके स्वामियों के गोत्र और गृह सर्वथा उच्छिन्न हो चुके थे, ऐसे बहुत से महानिधान लाकर राजा सिद्धार्थ के भण्डार भरने लगे । वे बहुत पुराने महानिधान निम्नलिखित स्थानों में थे-- (१) ग्राम-वह वस्ती, जहाँ अठारह प्रकार के कर लिये जाएँ। देवकृत निधान समाहरणम् ક્ષત્રિયાણીના ઉદરમાં લવાયા, ત્યારથી કુબેરની આજ્ઞાને ધારણ કરનારા, મળલોકમાં નિવાસ કરનારા, ઘણા ત્રિજભક નામના વન્તર દેવ, ઈન્દ્રની આજ્ઞાથી, જેમના માલિક નાશ પામ્યા હતા, જેમના સૂચક (નિશાન) વગેરે નષ્ટ થઈ ગયાં હતાં, જેમના સ્વામીઓનાં ગાત્ર અને ઘર નાશ પામ્યાં હતાં, તેથી જેમના સ્વામીઓને મૂળમાંથી જ અંત આવી ચૂક હતું, જેમના સૂચક સ્થંભ આદિ ચિહ્નો સદંતર ઉખડી ગયાં હતાં, જેમના સ્વામીઓનાં ગોત્ર અને ઘરને સદંતર હછેદ થઈ ગયે હતા, એવાં ઘણા મહાનિધાન લાવીને રાજા સિદ્ધાર્થના ભંડાર ભરવા લાગ્યા. તે ઘણુ જ પુરાણા મહાનિધાન નીચે લખેલ સ્થાનમાં હતાં– (१) आभ-ते परती, यांसा२ ५४२ ४२ वाय. Jain Education Setional 1५६५॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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