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________________ श्रीकल्प सूत्रे ॥५१६॥ मञ्जरी टीका सिद्धार्थेन राज्ञाऽभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नभक्तिचित्राद् भद्रासनादभ्युत्तिष्टति, अभ्युत्थाय अत्वरित मचमाल मसंभ्रान्तया अविलम्बितया राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव स्वकं शयनगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य मा खलु इमे एतद्रपाः महास्वमाः अन्यैः पापस्वमैः प्रतिघातिषतेति कृत्वा देवगुरुधर्मसंबद्धाभिः प्रशस्ताभिः धार्मिकीभिः कथामिः कल्पधर्मजागरिकां जाग्रती विहरति ॥१०४५॥ टीका-'तए णं सा इत्यादि । ततः स्वमफलश्रवणानन्तरं सा त्रिशला क्षत्रियाणी हृष्टतुष्टा चित्तानन्दिता हर्षवशविसर्पद्धदया-एषां पदानां व्याख्या त्रिशलास्वमदर्शनान्तर एकोनत्रिंशत सूत्रे गतेति ततोऽवसेया। करतल रिगृहीतं-करतले इस्ततले परिगृहीते संयोजिते यत्र तं, शिरस्यावर्त-शिरसि-मस्तके आवर्त्यते प्रदक्षिणतया भ्राम्यत इति शिरस्यावर्तस्तम् ! शिरसि प्रदक्षिणतया भ्राम्यमाणम् अञ्जलिं मस्तके शीर्ष कृत्वा एवं वक्ष्यमाणम् के फल को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करती है और स्वीकार करके नाना प्रकार के मणि-रत्नों की रचना के कारण अनुपम भद्रासन से उठती है। उठ कर त्वरा-रहित-चपलता-रहित और संभ्रम-रहित, विलंब रहित सुंदर राजहंसी समान गति से जहाँ अपना शयनागार है, वहाँ आती है। वहाँ आकर 'यह इस प्रकार निघूमाग्निके महास्वप्न अन्य पाप-स्वप्नों से घात को प्राप्त न हो जाएँ ऐसा विचार कर देव, गुरु और धर्म मए स्वप्रफलम्. संबंधी प्रशस्त धर्ममय कथाओं का अवलंबन करके धर्म-जागरणा करती हुई विचरती है ॥०४५॥ टीका का अर्थ-'तए णं सा' इत्यादि। स्वप्नों का फल सुनने के पश्चात् वह त्रिशला क्षत्रियाणी, राजा सिद्धार्थ के समीप पूर्वोक्त स्वमों का फलरूप अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई। उसके चित्त में असीम आनन्द उत्पन्न हुआ। हर्ष के कारण उसका हृदय खिल उठा। उसने दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर आवर्त करती हुई-अंजलि करके इस प्रकार कहा-हे स्वामिन् ! आप जो कहते સમ્યક પ્રકારે, તેના ફલેને સ્વીકારીને, મણિમય રત્નથી રચાયેલ ભદ્રાસન ઉપરથી, તે ઉભી થઈ, ચપલતા રહિત લેભા વિનાની રોકાણ વગરની અને વિલંબ વગરની રાજહંસીની જેવી ગતિથી ચાલતાં ચાલતાં, પિતાના શયનાગારમાં આવી પહોંચી. આવા સર્વોત્કૃષ્ટ ફલ આપનારા મહાસ્વને, અન્ય પાપ-સ્વનેથી આવાઈ ન જાય, ભૂંસાઈ ન જાય-માટે ॥५१६॥ રાત્રીનો બાકીને વખત, દેવ-ગુરુ-ધર્મ સંબંધી કથાઓનું સ્મરણ કરવામાં ગાળી જાગૃત રહી. (સૂ૦૪૫) न। मथ-'तप णं सात्याहि. २१नानु भन्यो पछी निशा क्षत्रिया, 64-तिष पाभी. तेन ચિત્તમાં અપાર આનંદ થયો. હર્ષને લીધે તેનું હદય ખીલી ઉઠયું. તેણે બન્ને હાથ જોડીને મસ્તક પર આવત પૈકી Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.600023
Book TitleKalpasutram Part_1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherSthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Rajkot
Publication Year1958
Total Pages594
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationManuscript & agam_kalpsutra
File Size21 MB
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