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श्रीकल्प
कल्पमञ्जरी टीका
॥४४॥
१०-पउमसरोवरसुमिणे मूलम्-तो पुण सा हीण-पीण-पाढीण-मग्गुर-साल-सगुल-जीव-रोहियाइ-मीण-मगर-गाहमुसुमार-कमढ-पभिइ-जलयर-नियर-परिपीयमाण-पाणीयं तरलतर-तरंग-तरंगियं कल्हार-हल्लग-कुवलय-इं. दीवर-केरव-पुंडरीय-कोगणय-परम-सुसमा सुसमियं अरुणा-रुण-किरण-प्फुरण-उभिद-कमल-किंजक-निस्संदमाण-मुरहितम-पराग-राग-संजाय-ईसिपीय-रत्ततोयं पराग-परिपाण-मत्त-मुइय-मंजु-गुंजंत-अंतोभमंत-मिलिंद-बिंद-पिहीयमाण-नलिणं विहरत-विविह-सउणि-गणं कमलिणी-दल-बिलसंत-अंबुबिंदु-कयंबग-जणियमोत्तिय-तारया-विन्भमं रयणायरसमं सरोयपुंजाहिरामं सयल-सोहा-मुह-समनिय-कलहंस-राजहंस-चालहंसचकवाग-चक-सरस-सारसा-खन्न-गव्या-हिट्ठिय-विहंगम-जुयल-संसेविय-जल-लोलं अणेगविह-देव-देवीजुयल-कीडण-उच्छलंत-कल्लोलं पेच्छय-जण-हियय-मण-नयणा-णंद-करं सयप्पहा-पराभूय-सगल-सरोवरं वरं पउमसरोवरं पासइ ॥सू० २४॥
१०-पद्मसरोवरस्वप्नः छाया-ततः पुनः सा हीन-पीन-पाठीन-मद्गुर-शाल-शकुल-राजीव-रोहितादिमीन-मकर-ग्राहशिशुमार-कमठ-प्रभृति-जलचर-निकर-परिपीयमान-पानीयं तरलतर-तरङ्ग-तर्राङ्गतं कहार-हल्लक-कुवलयेकरनेवाला था। ऐसे रत्नजटित रजतकलश अर्थात् रत्नों से जडे हुए चांदी के कलश को देखा ॥मू० २३॥
१०-पद्मसरोवर का स्वप्न मूल का अर्थ-'तो पुण सा हीणपीण.' इत्यादि । तत्पश्चात् त्रिशला देवी ने दशवें स्वप्न में श्रेष्ठ पद्य-सरोवर को देखा। वह कैसा था? सो कहते हैं- हीन (दुबले) और पीन (तगडे) पाठीन, मद्गुर, शाल, शकुल, राजीव, रोहित आदि मत्स्य तथा मगर, ग्राह, शिशुमार, कमठ-कछुए आदि जलचर जीवों का અંધકારનો નાશ કરનારે હતે. એવા રત્નજડિત રજતંકળશને એટલે કે રત્નથી જડેલા ચાંદીના કળશને જે. (સૂ૦૨૩)
१०-५६म सरो१२नु न. __भूबन म-'तओ पुण सा हीणपीण.' त्याह. ते स्वजना अनुभव मा, शभा ने भरे श्रेપધસરોવર જોયું.
આ સરોવરમાં, પાતળા જાડાં, હલકા, ભારે, શાલ, કુલ, રાજીવ, કાચવા વિગેરે જલચર છે તેનું પાણી પી રહ્યા હતાં.
पद्मसरोवर
वर्णनम्.
॥४४॥
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